जीवन के विचारधारा में कर्म का उत्साह
उत्साह जीवन के लिए जितना अहेमियत रखता है उतना ही कर्म पर प्रभाव डालता है.
कर्म जीवन का वो इकाई है जिसे स्वाबलंबन के मात्र को माप सकते है.
अपने कर्म में खुद के लिए कुछ नहीं होता है.
कर्म दूसरो के भलाई और उपकार के लिए ही आका जाता है.
मनुष्यता तब तक वो पूर्ण नहीं जब तक की वो निस्वार्थ भाव से कोई कर्म न करे.
यदि ऐसा भावना जीवन में नहीं आ रहा है.
कही न कही और कोई न कोई बहूत बड़ी कमी है.
जो या तो पता नहीं चल रहा है या ठीक से उजागर नहीं हो रहा है.
स्वयम के लिए सोचते और करते तो सब है.
पर कभी दूसरो के लिए भी करे तो वास्तविक जीवन का एहसास होता है.
सब जानते है और सब करते है तो भी ये कभी समझ नहीं आता है की वास्तविक जीवन क्या है?
अपने लिए जीना तो है ही, वो तो सबसे बड़ा कर्म है.
जब तक मनुष्य खुद के लिए नहीं करेगा तब तक दूसरो के लिए कैसे कर सकता है.
ज्ञान का पहला प्रयोग तो खुद पर ही होता है तब उससे जो उपार्जन होता है.
तो घर परिवार रिश्ते नाते और जान पहचान तक जाता है भले थोडा सा ही अंश क्यों नहीं हो.
स्वयम में सक्षम होने के बाद ही मनुष्य दूसरो के लिए कुछ कर पाता है.
वही उत्साह का कारन होता है.
उत्साह स्वावलंबन से ऊपर होने पर होता है.
जिसमे मनुष्य जीवन के हर पहलू का अध्यन करने के बाद जब पारंगत होता है.
तो ज्ञान का प्रभाव दूसरो पर भी पड़ता है.
उसके बातो से या उसके कार्यो से जो लोग उसे समझने लगते है.
उसे पढने का प्रयास भी करते है.
सच्चा ज्ञान कही छुपा नहीं रहता है.
कही न कही से किसी न किसी रूप में उजागर होता ही रहता है.
ये वास्तविक ज्ञान की परिभासा है.
चीजे जब अच्छी हो तो हर कोई पसंद करता है और उसका गुणगान करता है.
ज्ञान से निकले सकारात्मक भाव
जिसमे सब के लिए कुछ न कुछ समाहित होता है तो वो प्रेरणा देता है.
जब किसी के लिए कुछ करते है तो वो देय के भावना से उजागर होना चाहिए.
न की स्वार्थ के भावना से नहीं तो वो कर्म के दायरे में आएगा ही नहीं.
स्वाबलंबन दूर होता चल जायेगा.
जहा स्वयम के लिए कुछ भी नहीं होते हुए जब दूसरो के भलाई और उत्थान के उद्देश्य से कुछ होता है.
तो मन को वास्तविक शांति मिलती है.
जीवन के विचारधारा मे खुद को आजमाने के लिए स्वयं को परख सकते है.
कोई अंजान ब्यक्ति यदि भूखा है.
यदि कह रहा है की "मै बुखा हूँ मुझे भोजन चाहिए" यदि मन में उपकार की भावना है.
तो जरूर उसे भोजन करा देंगे.
यदि ये सोचेंगे की इसे भोजन करा के मुझे क्या मिलेगा?
तो वो उपकार करना या नहीं करना दोनों एक जैसा ही हो जायेगा.
भले उसको इस भावना से भोजन करा भी दिए.
तो ऐसा भावना लाना स्वयम के स्तर से और निचे गिरना होगा.
यदि बगैर सोचे समझे यदि मन कह रहा है की इसे भोजन करा दे.
स्वच्छ मन से प्रेम से उनको भोजन करा देते है.
बाद में उस भावना से अपने मन को टटोल कर देखे,
उस भावाना से कही न कही किसी न किसी कोने कोई ख़ुशी जरूरछुपी दिखेगी.
उस ख़ुशी में झांक कर देखिये.
वो वास्तविक ख़ुशी से बहूत ऊपर होगा. उस भाव में ख़ुशी के साथ एक उत्साह भी होगा.
ऐसे उत्साह निस्वार्थ भाव के कर्म से ही मिलते है.
देश काल और पत्र के अनुसार जब सब संतुलित होता है.
जीवन में अतुलित ख़ुशी मिलता है.
अपने जीवन के ख़ुशी में संतुलन भोग विलाश से ज्यादा देय के भावना से होता है.
जीवन के विचारधारा मे खुशी और वास्तविक ख़ुशी में बहूत अंतर होता है.
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