Wednesday, November 5, 2025

अगहन मास का परिचय अगहन नाम की उत्पत्ति इस मास का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व भगवान श्री हरि विष्णु, लक्ष्मी जी और गंगा पूजन का वर्णन

अगहन मास (Agahan Maas)

लेख में मैं यह सभी प्रमुख भाग शामिल करूंगा:

  1. अगहन मास का परिचय
  2. अगहन नाम की उत्पत्ति
  3. इस मास का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
  4. भगवान श्री हरि विष्णु, लक्ष्मी जी और गंगा पूजन का वर्णन
  5. अगहन मास में प्रमुख व्रत, पर्व और त्यौहार
  6. ज्योतिषीय दृष्टि से अगहन मास
  7. अगहन मास में करने योग्य कर्म
  8. अगहन मास के उपाय, दान और स्नान की महिमा
  9. लोक परंपराएँ और ग्रामीण मान्यताएँ
  10. निष्कर्ष


अगहन मास का परिचय

भारतीय सनातन पंचांग के अनुसार वर्ष को बारह मासों में विभाजित किया गया है  चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, अगहन (मार्गशीर्ष), पौष, माघ और फाल्गुन। इन मासों में अगहन मास का विशेष स्थान है। यह मास कार्तिक मास के बाद आता है और शीत ऋतु के आरंभ का प्रतीक होता है। अगहन मास को मार्गशीर्ष मास भी कहा जाता है। वैदिक परंपरा में यह मास अत्यंत पवित्र माना गया है क्योंकि इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं “गीता” का उपदेश दिया था।

श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 10, श्लोक 35) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं

“मासानां मार्गशीर्षोऽहम्।”
अर्थात्  “मासों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) मास हूँ।”

इससे स्पष्ट होता है कि यह महीना भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय मास है। इसी कारण इस महीने में श्री हरि विष्णु, लक्ष्मी माता, श्रीकृष्ण, और गंगा माता की विशेष पूजा की जाती है।

अगहन नाम की उत्पत्ति

“अगहन” शब्द संस्कृत के “अग्रहन्य” या “अग्र” शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है “सबसे श्रेष्ठ”।
यह मास वर्ष का श्रेष्ठ काल माना जाता है, क्योंकि इस समय देवताओं की उपासना का विशेष फल प्राप्त होता है। शीत ऋतु की शुरुआत के साथ इस मास में शरीर और मन दोनों साधना के अनुकूल होते हैं।

दूसरी ओर “मार्गशीर्ष” शब्द “मार्ग” (पथ) और “शीर्ष” (सर्वोत्तम) से बना है, अर्थात “सर्वोत्तम पथ का सूचक मास”।
यह मास धर्म, दान, तप, साधना, और ईश्वर उपासना का मार्ग दिखाने वाला है।

अगहन मास का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व

सनातन परंपरा में अगहन मास का संबंध विष्णु पूजा, गंगा स्नान और दान-पुण्य से है।
इस मास में साधक प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर पवित्र नदियों में स्नान करते हैं और भगवान विष्णु की पूजा करते हैं।
मान्यता है कि इस मास में गंगा स्नान करने से व्यक्ति के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह मोक्ष की प्राप्ति करता है।

धर्मशास्त्रों में वर्णन

स्कंद पुराण, पद्म पुराण, नारद पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में अगहन मास की विशेष महिमा बताई गई है।
शास्त्रों के अनुसार 

“अगहन मासे स्नानं तु सर्वपापप्रणाशनम्।”
अर्थात अगहन मास में किया गया स्नान समस्त पापों को नष्ट करता है।

भगवान श्री हरि विष्णु और लक्ष्मी जी की आराधना

इस मास में श्री हरि विष्णु की पूजा का विशेष महत्व बताया गया है।
व्रत, उपवास और दीपदान के साथ इस समय लक्ष्मी जी की कृपा प्राप्त होती है।
रात्रि में विष्णु सहस्रनाम का पाठ, तुलसी पूजा, और श्री नारायण का ध्यान करना शुभ फलदायक माना गया है।

पूजन विधि:

  1. प्रातःकाल स्नान कर पीले वस्त्र धारण करें।
  2. तुलसी दल और गंगाजल से विष्णु जी का अभिषेक करें।
  3. दीपदान करें और श्री हरि को पीले पुष्प अर्पित करें।
  4. भगवान श्रीकृष्ण को गीता के श्लोक पढ़कर अर्पित करें।
  5. ब्राह्मण या गरीबों को दान दें।

अगहन मास में प्रमुख व्रत, पर्व और त्यौहार

अगहन मास में अनेक पर्व और उत्सव मनाए जाते हैं। इनमें प्रमुख हैं:

  1. गीता जयंती  इस दिन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था।
  2. दत्तात्रेय जयंती  त्रिदेव रूप भगवान दत्तात्रेय का जन्मदिन।
  3. अग्रहायण पूर्णिमा  इस दिन गंगा स्नान, दान और ब्राह्मण भोज का विशेष महत्व है।
  4. नारायण पूजा एवं तुलसी विवाह की स्मृति
  5. अन्नकूट उत्सव  अन्नदान और गोसेवा का महोत्सव।

इस मास में अन्नदान का विशेष पुण्य बताया गया है। कहा गया है 

“अगहन्यां तु यः कुर्यात् अन्नदानं सदा नरः।
स वै स्वर्गे महीयेत सर्वदेवैरपि पूजितः॥”

ज्योतिषीय दृष्टि से अगहन मास

अगहन मास का आरंभ सूर्य के वृश्चिक राशि में होने पर होता है।
चंद्रमा प्रायः इस मास में मृगशिरा नक्षत्र के समीप होता है, इसलिए इसे “मार्गशीर्ष” कहा गया।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह समय सकारात्मक ऊर्जा, आध्यात्मिक विकास और मानसिक शांति का प्रतीक है।

जो लोग इस मास में ध्यान, योग, मंत्रजप और ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उन्हें ग्रहदोषों से मुक्ति मिलती है।
गुरु और बृहस्पति ग्रह की कृपा भी इस मास में विशेष रूप से बढ़ जाती है।

अगहन मास में करने योग्य कर्म

  1. गंगा स्नान: प्रतिदिन या कम से कम पूर्णिमा के दिन अवश्य।
  2. दान: अन्न, वस्त्र, तिल, गुड़, घी, और सोने का दान श्रेष्ठ माना गया है।
  3. उपवास: एकादशी व्रत इस मास में विशेष फलदायक होता है।
  4. दीपदान: मंदिरों और घरों में दीप प्रज्वलित करना।
  5. भजन-कीर्तन: भगवान विष्णु, श्रीकृष्ण और लक्ष्मी जी की आराधना करना।
  6. तुलसी पूजा: तुलसी को जल अर्पित करना और प्रदक्षिणा करना।
  7. सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और संयम का पालन।

अगहन मास के उपाय, दान और स्नान की महिमा

दान के उपाय:

  • गरीबों को गर्म वस्त्र देना।
  • गौशाला में चारा और गुड़ दान करना।
  • ब्राह्मणों को अन्नदान करना।
  • मंदिरों में दीप जलाना।
  • जरूरतमंदों को भोजन कराना।

स्नान की महिमा:

गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा या किसी पवित्र जलाशय में स्नान करने से समस्त पाप धुल जाते हैं।
जो व्यक्ति इस मास में सूर्योदय से पहले स्नान करके भगवान विष्णु का स्मरण करता है, उसे सौ जन्मों का पुण्य प्राप्त होता है।

लोक परंपराएँ और ग्रामीण मान्यताएँ

ग्रामीण भारत में अगहन मास को “धान कटाई” और “नई फसल” का महीना भी कहा जाता है।
इस महीने किसानों के घर में नए अन्न का आगमन होता है, इसलिए कई स्थानों पर इसे “अग्रहायण” (अन्न का अग्र आगमन) कहा गया है।
गाँवों में अन्नकूट, तुलसी विवाह, और देव पूजन जैसे लोक उत्सव इसी माह में धूमधाम से मनाए जाते हैं।

कई क्षेत्रों में यह मास अन्नपूर्णा देवी की आराधना का समय भी माना जाता है।
ग्राम्य समाज में इस समय घर-घर में भजन, कथा और दीपदान की परंपरा होती है।

निष्कर्ष

अगहन मास केवल एक समय नहीं, बल्कि आध्यात्मिक जागरण और ईश्वरीय कृपा का प्रतीक है।
यह महीना हमें सिखाता है कि जैसे ठंडी ऋतु में प्रकृति शांत और निर्मल होती है, वैसे ही मनुष्य को भी अपने भीतर शांति, श्रद्धा और संयम का भाव विकसित करना चाहिए।

इस मास में की गई पूजा, ध्यान, दान, और गीता का पाठ व्यक्ति को जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति की ओर ले जाता है।
यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इसे “मासों में श्रेष्ठ” कहा।

अतः हमें अगहन मास में आत्मशुद्धि, गंगा स्नान, विष्णु पूजा, और दान-पुण्य में स्वयं को लगाना चाहिए ताकि जीवन में सुख, शांति और मोक्ष की प्राप्ति हो।


गंगा स्नान पर ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, और आध्यात्मिक पहलुओं का गहन विवेचन किया गया है।

गंगा स्नान पर ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, और आध्यात्मिक पहलुओं का गहन विवेचन किया गया है।

गंगा स्नान आस्था, विज्ञान और जीवन का संगम

भूमिका

भारत की संस्कृति और सभ्यता का आधार उसकी नदियाँ रही हैं। इनमें सर्वाधिक पूजनीय और पवित्र नदी है गंगा। गंगा केवल एक जलधारा नहीं है, बल्कि यह भारतीय जनमानस की आत्मा में प्रवाहित होती हुई एक माँ के रूप में पूजी जाती है। गंगा का स्मरण मात्र ही श्रद्धा और शुद्धता की भावना जगाता है। जब कोई व्यक्ति गंगा के पवित्र जल में स्नान करता है, तो वह केवल अपने शरीर को नहीं, बल्कि आत्मा को भी पवित्र करने का प्रयास करता है। यही है गंगा स्नान की अद्भुत परंपरा।

गंगा का उद्गम और पौराणिक महत्व

गंगा का उद्गम स्थल गंगोत्री ग्लेशियर (उत्तराखंड) है, जिसे गोमुख कहा जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, गंगा का अवतरण पृथ्वी पर भगीरथ की तपस्या से हुआ। भगीरथ ने अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए हजारों वर्षों तक तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने गंगा को पृथ्वी पर भेजा, परंतु उसकी तीव्र धारा से पृथ्वी के नष्ट हो जाने की संभावना थी। तब भगवान शिव ने अपनी जटाओं में गंगा को धारण कर धीरे-धीरे उसे पृथ्वी पर प्रवाहित किया। इसी कारण गंगा को शिव की जटाओं से निकली देवी कहा गया।

यह कथा केवल एक मिथक नहीं, बल्कि त्याग, तपस्या और मोक्ष की गूढ़ प्रतीक है। इसीलिए गंगा को ‘त्रिपथगा’ कहा जाता है — जो स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल तीनों लोकों में बहती है।

गंगा स्नान की परंपरा

भारत में गंगा स्नान का उल्लेख वेदों, पुराणों और उपनिषदों में मिलता है। गरुड़ पुराण, पद्म पुराण, और स्कंद पुराण में कहा गया है कि “गंगा स्नान करने वाला व्यक्ति जन्म-जन्मांतर के पापों से मुक्त होता है।”

गंगा स्नान केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह एक आध्यात्मिक साधना है। इसमें जल के माध्यम से आत्मशुद्धि, मन की स्थिरता और परमात्मा से एकाकार की भावना निहित होती है।

गंगा स्नान के प्रमुख पर्व

भारत में कई अवसरों पर गंगा स्नान का विशेष महत्व होता है। इनमें से कुछ प्रमुख हैं—

1. मकर संक्रांति

इस दिन सूर्य उत्तरायण होता है। मान्यता है कि इस समय गंगा में स्नान करने से सूर्यदेव प्रसन्न होते हैं और जीवन में नई ऊर्जा का संचार होता है।

2. कुंभ और अर्धकुंभ

हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में होने वाले कुंभ मेले में गंगा स्नान को अमृत स्नान कहा गया है। यह संसार का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु भाग लेते हैं।

3. कार्तिक पूर्णिमा

इस दिन गंगा स्नान का अत्यंत शुभ फल मिलता है। कहा जाता है कि देवता भी इस दिन गंगा में स्नान करने के लिए पृथ्वी पर उतरते हैं।

4. गंगा दशहरा

यह दिन गंगा के पृथ्वी पर अवतरण का प्रतीक है। इस दिन गंगा स्नान करने से दस प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं।

5. अमावस्या और पूर्णिमा स्नान

प्रत्येक पूर्णिमा और अमावस्या को गंगा स्नान का विशेष महत्व बताया गया है, विशेषतः पितृ तर्पण और दान के साथ।

गंगा स्नान का धार्मिक महत्व

गंगा स्नान का उद्देश्य केवल शरीर की स्वच्छता नहीं, बल्कि आत्मा की पवित्रता है।
हिंदू धर्म में माना गया है कि गंगा जल में स्नान करने से पापों का नाश होता है और मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है।

स्कंद पुराण में कहा गया है

“गंगाजलं पिबति यो मनुष्यः, तस्य पापानि नश्यन्ति नूनम्।”
अर्थात जो व्यक्ति गंगा जल पीता या उसमें स्नान करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।

गंगा स्नान आत्मबल, श्रद्धा और समर्पण की परीक्षा है। व्यक्ति अपने भीतर की अशुद्धियों को गंगा में समर्पित कर एक नई शुरुआत करता है।

गंगा स्नान का सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष

गंगा स्नान केवल व्यक्तिगत साधना नहीं, बल्कि सामाजिक एकता का प्रतीक भी है।
कुंभ मेला, कार्तिक स्नान, या देव दीपावली जैसे पर्वों पर करोड़ों लोग एक साथ गंगा किनारे एकत्र होते हैं। यह संगम समाज में समानता, सद्भाव और एकता का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करता है।

गंगा किनारे बसे नगर  हरिद्वार, वाराणसी, प्रयागराज, काशी, पटना, भागलपुर, गंगासागर  न केवल तीर्थ हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति के केंद्र भी हैं।

गंगा स्नान और विज्ञान

आधुनिक विज्ञान ने भी गंगा जल की विशेषताओं को स्वीकार किया है।
शोधों से पता चला है कि गंगा जल में एक विशेष प्रकार का बैक्टीरियोफेज पाया जाता है जो हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट कर देता है।
इसलिए गंगा का जल लंबे समय तक खराब नहीं होता।

वैज्ञानिकों का कहना है कि गंगा के जल में ऑक्सीजन धारण क्षमता बहुत अधिक है, जो इसे प्राकृतिक रूप से शुद्ध रखती है।
यह तथ्य बताता है कि गंगा स्नान केवल धार्मिक नहीं, बल्कि स्वास्थ्यवर्धक और पर्यावरणीय दृष्टि से भी लाभकारी है।

गंगा स्नान के मानसिक और आध्यात्मिक लाभ

गंगा के जल में स्नान करने से व्यक्ति के मन में शांति, स्थिरता और नई ऊर्जा का अनुभव होता है।
प्रभात काल में गंगा किनारे सूर्य को अर्घ्य देना, ध्यान करना और मंत्रोच्चार के साथ स्नान करना व्यक्ति के चेतन और अवचेतन मन को संतुलित करता है।

ध्यान और स्नान का यह संयोजन आत्मा को शुद्ध करता है। यह व्यक्ति को प्रकृति से जोड़ता है  वही प्रकृति जो परमात्मा का रूप है।

गंगा स्नान के नियम और विधि

गंगा स्नान करते समय कुछ नियमों का पालन आवश्यक बताया गया है

  1. स्नान से पहले प्रातः काल में उठकर संकल्प लेना चाहिए।
  2. “ॐ नमो गंगायै नमः” का जप करते हुए गंगा में प्रवेश करें।
  3. स्नान के बाद सूर्य को अर्घ्य दें।
  4. अपने पाप, दुख, और नकारात्मक भावनाओं को गंगा में समर्पित करें।
  5. दान और ब्राह्मणों को भोजन कराना पुण्यदायक होता है।

गंगा और भारतीय जीवन दर्शन

गंगा भारतीय जीवन का प्रतीक है। वह करुणा, प्रवाह और त्याग की मूर्ति है।
गंगा हमें सिखाती है कि जीवन में रुकावटें आएं तो भी प्रवाहित रहना चाहिए।
वह पर्वत से निकलकर मैदानों में बहती है, हर वर्ग, हर जाति, हर जीव को समान रूप से सींचती है।

इसीलिए कहा गया है 

“गंगा प्रवाह जीवन का संदेश है  निरंतरता, पवित्रता और समर्पण।”

गंगा स्नान और मोक्ष की अवधारणा

हिंदू धर्म में मोक्ष का अर्थ है  जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति।
मान्यता है कि जो व्यक्ति गंगा में स्नान करता है या गंगा तट पर मृत्यु को प्राप्त होता है, उसे मोक्ष मिलता है।
काशी में ‘मुक्ति’ इसी कारण से जुड़ी है  वहाँ बहती गंगा आत्मा को शिव की शरण में ले जाती है।

गंगा की वर्तमान स्थिति और पर्यावरणीय चुनौतियाँ

आज गंगा हमारी आस्था की प्रतीक होने के साथ-साथ पर्यावरणीय संकट से भी जूझ रही है।
औद्योगिक अपशिष्ट, सीवेज और प्लास्टिक प्रदूषण ने गंगा के जल को प्रभावित किया है।
सरकार ने ‘नमामि गंगे परियोजना’ जैसी योजनाएँ चलाई हैं, जिनका उद्देश्य गंगा की शुद्धता पुनः स्थापित करना है।

परंतु केवल योजनाएँ नहीं, बल्कि जनभागीदारी आवश्यक है।
हर व्यक्ति को यह संकल्प लेना चाहिए कि वह गंगा को प्रदूषित नहीं करेगा  क्योंकि यह केवल नदी नहीं, बल्कि हमारी माँ है।

गंगा स्नान और भारतीय तीर्थ यात्रा

गंगा तट पर बसे तीर्थ  जैसे हरिद्वार, ऋषिकेश, प्रयागराज, वाराणसी, गंगासागर  तीर्थयात्रियों के लिए मोक्षद्वार हैं।
हरिद्वार में ‘हर की पौड़ी’ पर दीपदान और स्नान आत्मा को शुद्ध करता है।
प्रयागराज का त्रिवेणी संगम तो स्वयं देवताओं का मिलन स्थल कहा गया है।

गंगा स्नान का सांस्कृतिक विस्तार

गंगा केवल उत्तर भारत तक सीमित नहीं रही। उसकी आस्था नेपाल, बांग्लादेश, इंडोनेशिया और दक्षिण एशिया के कई देशों तक फैली है।
कई विदेशी यात्री जैसे ह्वेनसांग, फाह्यान ने भी अपने यात्रा वृतांतों में गंगा की पवित्रता का उल्लेख किया है।

साहित्य, कला और संगीत में गंगा

भारतीय कवियों और संतों ने गंगा की महिमा का अनेक रूपों में वर्णन किया है।
तुलसीदास ने कहा

“गंगाजल महिमा अमित, अमित गति अमित परीत।”

कबीर ने गंगा को आत्मज्ञान का प्रतीक माना, तो रविंद्रनाथ टैगोर ने उसे मातृत्व की छवि बताया।
भारतीय संगीत, चित्रकला और नृत्य में भी गंगा की धारा एक प्रेरणास्रोत रही है।

गंगा स्नान का आधुनिक स्वरूप

आज भी लाखों श्रद्धालु हर दिन गंगा किनारे स्नान करने आते हैं।
हालाँकि आधुनिक युग में भौतिकता बढ़ी है, परंतु गंगा स्नान की आस्था आज भी अटल है।
डिजिटल युग में भी लोग ऑनलाइन दर्शन और “गंगा आरती लाइव” के माध्यम से इस परंपरा से जुड़े हुए हैं।

गंगा आरती और स्नान का संगम

गंगा आरती, विशेषतः वाराणसी, हरिद्वार और ऋषिकेश की आरती, गंगा स्नान का भावनात्मक समापन है।
दीपों की लौ, मंत्रों की ध्वनि, घंटों की टंकार और प्रवाहित जल  सब मिलकर एक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करते हैं।

गंगा स्नान निष्कर्ष

गंगा स्नान केवल जल में डुबकी नहीं, बल्कि जीवन में नई चेतना का आरंभ है।
यह आस्था का, आत्मशुद्धि का, और समर्पण का प्रतीक है।
गंगा हमें सिखाती है कि जीवन में प्रवाहित रहो, निर्मल रहो, और दूसरों को भी जीवन दो।

गंगा का जल केवल पृथ्वी को नहीं, बल्कि मनुष्य के अंतःकरण को भी पवित्र करता है।
यही कारण है कि गंगा भारत की आत्मा है, और गंगा स्नान उसका सबसे सुंदर उत्सव।

अंतिम वंदना

“हे माँ गंगे, तुम्हारा जल अमृत समान है।
तुम्हारी धारा में डुबकी लगाकर तन ही नहीं, मन भी शुद्ध होता है।
तुम जीवन की निरंतरता हो, और मोक्ष की कुंजी भी।
तुम्हारे बिना भारत अधूरा है।”


लक्ष्मी नारायण भगवान की कथा, स्वरूप, महत्व, अवतार, पूजन विधि, प्रतीकात्मक अर्थ और आध्यात्मिक दर्शन का संपूर्ण वर्णन है।

लक्ष्मी नारायण भगवान की कथा, स्वरूप, महत्व, अवतार, पूजन विधि, प्रतीकात्मक अर्थ और आध्यात्मिक दर्शन का संपूर्ण वर्णन है।


लक्ष्मी नारायण भगवान – एक पूर्ण दिव्य दर्शन

भूमिका

सनातन धर्म की विशाल परंपरा में भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी का संयुक्त स्वरूप “लक्ष्मी नारायण” के रूप में पूजित है।
यह स्वरूप केवल पति-पत्नी का दैवीय मेल नहीं, बल्कि सृष्टि की स्थिरता और समृद्धि का ब्रह्मीय संतुलन है।
जहाँ नारायण संरक्षण और पालन के प्रतीक हैं, वहीं लक्ष्मी समृद्धि, सौंदर्य और शुभता की अधिष्ठात्री देवी हैं।
इन दोनों की एकता संसार के हर अस्तित्व का मूल तत्व है।

लक्ष्मी नारायण की उत्पत्ति

(क) ब्रह्मांड की सृष्टि से पूर्व

पुराणों के अनुसार, जब सृष्टि का आरंभ नहीं हुआ था, तब केवल शेषशायी भगवान विष्णु ही अनंत सागर पर योगनिद्रा में स्थित थे।
उनकी नाभि से ब्रह्मा जी प्रकट हुए और उनसे सृष्टि की रचना प्रारंभ हुई।
वह सृष्टि केवल स्थूल रूप में थी, उसमें आकर्षण, सौंदर्य और जीवन की गति का अभाव था।
तब भगवान की योगमाया से श्री लक्ष्मी जी प्रकट हुईं  और तभी संसार में चेतना और समृद्धि का संचार हुआ।

(ख) लक्ष्मी का प्राकट्य

लक्ष्मी जी के उद्भव के कई प्रसंग हैं।
सबसे प्रसिद्ध कथा है समुद्र मंथन की।
जब देवता और दैत्य अमृत प्राप्ति के लिए क्षीर सागर का मंथन कर रहे थे, तब चौदह रत्न निकले, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण थी श्री लक्ष्मी देवी
उन्होंने पुष्पों की माला लेकर भगवान विष्णु के गले में डाल दी, और तभी से वे उनकी अर्धांगिनी बन गईं।

लक्ष्मी नारायण का स्वरूप

(क) भगवान नारायण का स्वरूप

  • चार भुजाएँ शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए।
  • शेषनाग पर शयन करते हुए, क्षीरसागर में स्थित।
  • करुणामय, शांत और तेजस्वी मुखमंडल।
  • वस्त्र पीतांबर, मुकुट मणिमय।

(ख) माता लक्ष्मी का स्वरूप

  • चार भुजाएँ कमल, स्वर्णपात्र, वरमुद्रा और अभय मुद्रा।
  • कमलासन पर विराजमान, दोनों ओर हाथियों द्वारा अभिषेकित।
  • सौंदर्य, शांति, माधुर्य और तेज का संगम।

(ग) संयुक्त स्वरूप “लक्ष्मी नारायण”

जब दोनों साथ पूजित होते हैं, तो वह स्वरूप संपूर्णता, सौंदर्य और धर्म का प्रतीक बन जाता है।
यह केवल वैवाहिक मिलन नहीं, बल्कि ऊर्जा (शक्ति) और पुरुष (चेतन) का अद्वैत संयोग है।

लक्ष्मी नारायण का वैदिक महत्व

वेदों और उपनिषदों में इन्हें परब्रह्म और माया के रूप में वर्णित किया गया है।

  • नारायण उपनिषद कहता है 
    “नारायणः परो ज्योति आत्मा नारायणः परः।”
    अर्थात् सृष्टि का आदि और अंत दोनों ही नारायण हैं।
  • श्रीसूक्त में कहा गया है 
    “महादेवीं विश्वमाता नमाम्यहम्।”
    अर्थात् लक्ष्मी विश्व की माता हैं।

लक्ष्मी बिना नारायण अधूरे हैं, और नारायण बिना लक्ष्मी के निःसंग।
इसलिए उन्हें “लक्ष्मीपति” कहा गया है।

पुराणों में लक्ष्मी नारायण

(क) विष्णु पुराण

विष्णु पुराण में कहा गया है लक्ष्मी जी विष्णु की चिरसंगिनी हैं।
जहाँ भी विष्णु अवतरित होते हैं, वहाँ लक्ष्मी उनके साथ प्रकट होती हैं।
उदाहरणार्थ:

  • रामावतार में सीता जी के रूप में।
  • कृष्णावतार में रुक्मिणी जी के रूप में।
  • वामनावतार में पद्मा के रूप में।

(ख) भागवत पुराण

भागवत में लक्ष्मी नारायण की महिमा अत्यंत अद्भुत कही गई है।
भगवान विष्णु कहते हैं  “जो भक्त लक्ष्मी सहित मेरी उपासना करता है, वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों फल प्राप्त करता है।”

लक्ष्मी नारायण का दर्शन और पूजन

(क) पूजन विधि

  1. स्नान करके पीले वस्त्र धारण करें।
  2. पूर्व दिशा में आसन बिछाकर लक्ष्मी-नारायण की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें।
  3. दीप प्रज्वलित करें।
  4. गंगाजल, अक्षत, पुष्प, चंदन, फल और तुलसी अर्पित करें।
  5. “ॐ लक्ष्मी नारायणाय नमः” का 108 बार जप करें।
  6. प्रसाद स्वरूप तुलसीपत्र और पंचामृत ग्रहण करें।

(ख) विशेष पर्व

  • लक्ष्मी नारायण व्रत मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा।
  • कार्तिक पूर्णिमा जब विष्णु और लक्ष्मी एक साथ पूजित होते हैं।
  • वैष्णव एकादशी हर एकादशी को लक्ष्मी नारायण का ध्यान श्रेष्ठ माना गया है।

दार्शनिक दृष्टि से लक्ष्मी नारायण

(क) सृष्टि का संतुलन

नारायण का अर्थ है जो “नर” (जीवों) में व्याप्त हैं।
लक्ष्मी का अर्थ है  जो “लक्षण” अर्थात् गुण और सौंदर्य देती हैं।
दोनों मिलकर जीवन को स्थायित्व और सम्पन्नता प्रदान करते हैं।

(ख) आध्यात्मिक प्रतीक

  • नारायण = चेतना, व्यवस्था, धर्म।
  • लक्ष्मी = ऊर्जा, कृपा, सौंदर्य।
    उनका संयुक्त रूप दर्शाता है कि भक्ति और भौतिकता का संतुलन आवश्यक है।

लक्ष्मी नारायण के मंदिर और तीर्थ

भारत में अनेक प्रसिद्ध मंदिर हैं जहाँ लक्ष्मी नारायण पूजित हैं:

  1. लक्ष्मी नारायण मंदिर (बिड़ला मंदिर), दिल्ली – आधुनिक स्थापत्य का अद्भुत उदाहरण।
  2. लक्ष्मी नारायण मंदिर, भुवनेश्वर – कलिंग शैली में निर्मित।
  3. बदरी नारायण (उत्तराखंड) – चार धामों में प्रमुख।
  4. श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर (श्रीरंगम) – जहाँ भगवान शेषशायी रूप में हैं और लक्ष्मी माता उनके वक्षस्थल पर विराजमान।
  5. पद्मनाभ स्वामी मंदिर (केरल) – जहाँ नारायण शेषनाग पर लेटे हैं और लक्ष्मी माता उनके समीप हैं।

लक्ष्मी नारायण के अवतार

अवतार लक्ष्मी का रूप उद्देश्य
रामावतार सीता अधर्म का नाश, रावण वध
कृष्णावतार रुक्मिणी धर्म की स्थापना, प्रेम और भक्ति का प्रसार
वामनावतार पद्मा बलि राजा को धर्ममार्ग पर लाना
नरसिंहावतार लक्ष्मी (प्रत्यक्षा न होकर शक्ति रूप में) भक्त प्रह्लाद की रक्षा

लक्ष्मी नारायण की कृपा के फल

  1. धन और समृद्धि की प्राप्ति।
  2. मन की शांति और वैराग्य का संतुलन।
  3. भक्ति, धर्म और सत्य का पालन।
  4. पारिवारिक सुख और संतोष।
  5. कर्म में सफलता और मोक्ष की प्राप्ति।

लक्ष्मी नारायण का आधुनिक संदेश

आज की भौतिक दुनिया में भी लक्ष्मी नारायण का संदेश अत्यंत प्रासंगिक है 
समृद्धि तभी स्थायी है जब वह धर्म के आधार पर हो।
नारायण धर्म हैं, लक्ष्मी धन हैं।
धन धर्म के बिना अधर्म की ओर ले जाता है, और धर्म धन के बिना टिक नहीं पाता।
अतः दोनों का संतुलन जीवन का परम सूत्र है।

भक्तों के प्रसिद्ध भजन और मंत्र

  • “ॐ लक्ष्मी नारायणाय नमः”
  • “श्री लक्ष्मी नारायण अष्टकम्”
  • “जय लक्ष्मी नारायण जय लक्ष्मी नारायण”
  • “श्री विष्णु सहस्रनाम”
  • “श्री सूक्त” और “पुरुष सूक्त”

निष्कर्ष

लक्ष्मी नारायण केवल देवी-देवता नहीं, बल्कि जीवन के दो आधार स्तंभ हैं 

  • एक संरक्षण और धर्म का (नारायण),
  • दूसरा समृद्धि और सौंदर्य का (लक्ष्मी)।

इन दोनों के समन्वय से ही जीवन में शांति, सम्पन्नता और मोक्ष की प्राप्ति संभव है।
भक्त जब लक्ष्मी नारायण का ध्यान करता है, तो उसके जीवन में सदाचार, प्रेम, करुणा और धन का प्रवाह स्वाभाविक हो जाता है।

अंतिम प्रार्थना:

“हे लक्ष्मी नारायण!
आपसे ही सृष्टि का आरंभ और अंत है।
हमारे जीवन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की कृपा बरसाइए।
हमारे हृदय में प्रेम, ज्ञान और वैराग्य का प्रकाश सदैव बना रहे।”


गुरु नानक देव जी का जीवन परिचय उनके आध्यात्मिक संदेश, यात्राएँ, शिक्षाएँ और विरासत तक सब कुछ विस्तारपूर्वक दिया गया है।

गुरु नानक देव जी का जीवन परिचय उनके आध्यात्मिक संदेश, यात्राएँ, शिक्षाएँ और विरासत तक सब कुछ विस्तारपूर्वक दिया गया है।

गुरु नानक देव जी का जीवन चरित्र 

भूमिका

भारत की पावन धरती पर समय-समय पर अनेक संत, महात्मा और अवतार पुरुषों ने जन्म लेकर मानवता के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित किया है। इन्हीं महापुरुषों में से एक थे श्री गुरु नानक देव जी, जो सिख धर्म के प्रथम गुरु और संस्थापक माने जाते हैं। उन्होंने प्रेम, समानता, सत्य, करुणा और एकेश्वरवाद का ऐसा संदेश दिया जो आज भी मानव समाज के लिए प्रकाशपुंज है।

गुरु नानक जी का जीवन केवल एक धार्मिक यात्रा नहीं था, बल्कि एक ऐसा आध्यात्मिक आंदोलन था जिसने मानव जाति को नई दिशा दी। उन्होंने जात-पात, ऊँच-नीच और भेदभाव से ऊपर उठकर “एक ओंकार सतनाम” का उपदेश दिया — अर्थात् ईश्वर एक है, और सत्य उसका नाम है।

जन्म और प्रारंभिक जीवन

गुरु नानक देव जी का जन्म 15 अप्रैल 1469 (कार्तिक पूर्णिमा) को रावी नदी के किनारे तलवंडी गाँव (वर्तमान में ननकाना साहिब, पाकिस्तान) में हुआ था। उनके पिता का नाम मेहता कालू चंद (कल्याणदास) और माता का नाम माता तृप्ता देवी था। वे एक खत्री परिवार से संबंधित थे।

गुरु नानक जी की एक बहन थीं बेबी नानकी, जो उनसे पाँच वर्ष बड़ी थीं। बचपन से ही गुरु नानक देव जी में असाधारण गुण दिखाई देने लगे थे। वे अत्यंत शांत, जिज्ञासु और ईश्वर प्रेमी बालक थे।

उनके जन्म के समय ही कई चमत्कारिक घटनाएँ हुईं  कहा जाता है कि उनके जन्म के दिन अद्भुत प्रकाश फैला, और गाँव के पंडितों ने भविष्यवाणी की कि यह बालक ईश्वर का दूत बनेगा।

बाल्यकाल की असाधारण घटनाएँ

गुरु नानक देव जी के बचपन में ही ऐसे कई प्रसंग घटे जिन्होंने यह सिद्ध किया कि वे कोई सामान्य बालक नहीं हैं।

पाठशाला में ज्ञान की परीक्षा

जब उन्हें स्थानीय गुरु के पास पढ़ने भेजा गया, तो उन्होंने अल्पायु में ही विद्या के गूढ़ रहस्य समझ लिए। उन्होंने वर्णमाला (अक्षर) के माध्यम से ईश्वर के स्वरूप को समझाया। उदाहरण के लिए, उन्होंने “अ” अक्षर को “अल्लाह” और “ईश्वर” का प्रतीक बताया।

खेत में ध्यान

एक बार उनके पिता ने उन्हें खेत में काम पर भेजा। परंतु नानक जी हल चलाने के बजाय ध्यान में लीन हो गए। पिता ने उन्हें डाँटा, तो उन्होंने कहा —

“पिता जी, मैं खेत नहीं, जीवन की भूमि जोत रहा हूँ; यहाँ भक्ति और सत्य के बीज बो रहा हूँ।”

सत्य का सौदा

उनके पिता ने उन्हें व्यापार के लिए कुछ धन दिया और कहा कि कोई लाभदायक सौदा करो। गुरु नानक जी रास्ते में कुछ भूखे साधुओं को देख कर सारा धन भोजन कराने में लगा दिया। जब पिता ने पूछा तो बोले —

“पिता जी! यही ‘सच्चा सौदा’ था, जहाँ लाभ आत्मा का हुआ।”

विवाह और गृहस्थ जीवन

गुरु नानक देव जी का विवाह 1499 ई. में सुलखनी देवी से हुआ, जो मुला चंद (बटाला, पंजाब) की पुत्री थीं। उनके दो पुत्र हुए 

  1. श्रीचंद,
  2. लख्मीचंद

यद्यपि वे गृहस्थ जीवन में रहे, परंतु उनका मन सदैव ईश्वर भक्ति में लगा रहता था। उन्होंने परिवार और संसार के बीच संतुलन बनाकर दिखाया कि भक्ति और गृहस्थी दोनों साथ चल सकते हैं

आध्यात्मिक जागरण

गुरु नानक जी बचपन से ही ध्यान, साधना और ईश्वर चिंतन में लगे रहते थे। वे लोगों के बीच व्याप्त धार्मिक पाखंड, जातिवाद, ऊँच-नीच और अन्याय से अत्यंत दुखी थे।

एक दिन, जब वे बेईन नदी (वर्तमान पाकिस्तान) में स्नान कर रहे थे, तो तीन दिन तक लापता रहे। जब वे लौटे, तो उनका शरीर तेजोमय था और वे बोले —

ना कोई हिंदू, ना मुसलमान  सब ईश्वर की संतान हैं।

यही उनके जीवन का मोड़ था। वे अब एक जाग्रत आत्मा, एक संत, एक गुरु बन चुके थे।

चार महान यात्राएँ (उदासियाँ)

गुरु नानक देव जी ने जीवनभर मानवता के कल्याण हेतु यात्राएँ कीं जिन्हें “चार उदासियाँ” कहा जाता है। इन यात्राओं के दौरान उन्होंने भारत, तिब्बत, श्रीलंका, अरब, मक्का, बगदाद, नेपाल, और अफगानिस्तान तक भ्रमण किया।

पहली उदासी (1499–1509)

यह यात्रा पूर्व दिशा की थी। गुरु नानक जी ने बिहार, बंगाल, असम, उड़ीसा, और नेपाल तक भ्रमण किया।
उन्होंने ब्राह्मणवाद और कर्मकांडों का विरोध करते हुए कहा —

“केवल मंत्रों से नहीं, कर्म से पूजा होती है।”

 दूसरी उदासी (1509–1514)

यह यात्रा दक्षिण भारत की थी। वे कांचीपुरम, श्रीलंका और रामेश्वरम तक पहुँचे।
वहाँ उन्होंने शैव और वैष्णव मतों में समरसता का संदेश दिया।

तीसरी उदासी (1514–1519)

इस बार वे उत्तर दिशा की ओर गए — तिब्बत, कश्मीर, सिक्किम और चीन की सीमा तक।
वहाँ उन्होंने कहा —

“हर दिशा में वही परमात्मा है, कोई जगह अपवित्र नहीं।”

चौथी उदासी (1519–1521)

इस यात्रा में वे पश्चिम दिशा की ओर गए  मक्का, मदीना, बगदाद तक पहुँचे।
मक्का में जब उन्होंने सोते समय पैर काबा की दिशा में रखे, तो काज़ियों ने उन्हें डाँटा।
गुरु जी बोले 

“मेरे पैर उस दिशा में घुमा दो जहाँ ईश्वर नहीं है।”
यह सुनकर सब मौन हो गए।

शिक्षाएँ और उपदेश

गुरु नानक देव जी के उपदेशों ने समाज को नई दिशा दी। उनकी शिक्षाएँ सरल, व्यावहारिक और सार्वभौमिक थीं।

एकेश्वरवाद (ईश्वर एक है)

उन्होंने कहा 

एक ओंकार सतनाम एक ही परमात्मा है, जो सबमें विद्यमान है।”
यह सिख धर्म का मूल सिद्धांत बना।

नाम जपना

ईश्वर का निरंतर स्मरण और ध्यान करना — यह मनुष्य को पवित्र करता है।

कीरत करनी

ईमानदारी से श्रम करके जीवन यापन करना — उन्होंने मेहनत को पूजा बताया।

वंड छकना

जो कुछ भी मिले, उसे दूसरों के साथ बाँटना  समाज में समानता और प्रेम बनाए रखना।

समानता का संदेश

उन्होंने स्त्री-पुरुष समानता, जात-पात विरोध और मानव एकता का प्रचार किया।

“नारी से ही नर उत्पन्न होता है, फिर उसे नीचा क्यों कहा जाए?”

कार्तारपुर की स्थापना

अपनी यात्राओं के बाद गुरु नानक देव जी 1522 ई. में कार्तारपुर (पंजाब) में बस गए। यहीं उन्होंने पहला “संगत और लंगर” प्रारंभ किया  जहाँ सभी वर्गों के लोग एक साथ बैठकर भोजन करते थे।

यहाँ उन्होंने कृषि कार्य करते हुए, भजन, कीर्तन और उपदेश का क्रम आरंभ किया।

कार्तारपुर आज भी सिख परंपरा का केंद्र है।

ग्रंथ और रचनाएँ

गुरु नानक देव जी के उपदेशों और भजनों को बाद में गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित किया गया।
उनकी रचनाएँ “जपजी साहिब, सिद्ध गोष्ट, आसा दी वार, सोहिला, बारह माहा” आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं।

इनमें भक्ति, ज्ञान, समानता और प्रेम का अद्भुत संगम है।

प्रसिद्ध कथन

गुरु नानक देव जी के कई वचन आज भी लोगों के जीवन का मार्गदर्शन करते हैं 

  • “सत्य सबसे ऊँचा है, परंतु उससे भी ऊँचा सत्याचरण है।”
  • “ना कोई हिंदू, ना कोई मुसलमान  सब ईश्वर की संतान हैं।”
  • “मन जीतै जग जीत।”
  • “ईश्वर हमारे भीतर है, बाहर नहीं।”
  • “नाम के बिना जीवन व्यर्थ है।”

अंतिम समय

गुरु नानक देव जी ने अपने अंतिम समय में अपने उत्तराधिकारी के रूप में भाई लहणा जी (जो बाद में गुरु अंगद देव जी बने) को नियुक्त किया।

वे 22 सितंबर 1539 ई. को कार्तारपुर साहिब में जोति जोत समा गए

उनके निधन के बाद हिंदू और मुसलमान दोनों ही उनके शरीर का संस्कार करना चाहते थे। जब चादर उठाई गई, तो वहाँ केवल फूल थे दोनों समुदायों ने अपने-अपने तरीके से उन्हें श्रद्धांजलि दी।

गुरु नानक देव जी की विरासत

गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं ने एक नए सामाजिक-धार्मिक आंदोलन  सिख धर्म की नींव रखी।
उनके बाद नौ और गुरु हुए, जिन्होंने उनके संदेश को आगे बढ़ाया।

आज पूरी दुनिया में करोड़ों लोग गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का पालन करते हैं।
उनकी शिक्षाएँ गुरु ग्रंथ साहिब में जीवित हैं  जो सिखों का सर्वोच्च धर्मग्रंथ है।

आधुनिक युग में प्रासंगिकता

गुरु नानक देव जी की बातें आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी 500 वर्ष पहले थीं।
उन्होंने जो बातें कहीं 

  • जातिवाद का विरोध,
  • समानता का समर्थन,
  • स्त्री सम्मान,
  • मेहनत और ईमानदारी का महत्व 
    वह आज के समाज के लिए मार्गदर्शक हैं।

उनका संदेश मानवता, शांति और प्रेम पर आधारित है।

सर्बत दा भला” — यानी सबका भला हो  यही उनका शाश्वत संदेश है।

निष्कर्ष

गुरु नानक देव जी केवल एक धार्मिक नेता नहीं, बल्कि मानवता के मार्गदर्शक थे।
उन्होंने अंधविश्वास, पाखंड, जातिवाद और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई।
उनकी वाणी आज भी समाज को जोड़ती है, विभाजन नहीं करती।

उनकी शिक्षाएँ समय, देश, धर्म से परे हैं —
हर इंसान के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।

एक ओंकार सतनाम, करता पुरख, निर्भउ, निरवैर...
यही वह दिव्य मंत्र है जो पूरे ब्रह्मांड को जोड़ता है।

सारांश (संक्षेप में)

विषय विवरण
जन्म 15 अप्रैल 1469 (कार्तिक पूर्णिमा), तलवंडी, पाकिस्तान
माता-पिता माता तृप्ता, पिता मेहता कालू
पत्नी माता सुलखनी
पुत्र श्रीचंद, लख्मीचंद
प्रमुख संदेश एकेश्वरवाद, समानता, नाम जपना, कीरत करनी, वंड छकना
मृत्यु 22 सितंबर 1539, कार्तारपुर
प्रमुख ग्रंथ जपजी साहिब, आसा दी वार, सिद्ध गोष्ट
धर्म सिख धर्म के प्रथम गुरु
प्रसिद्ध नारा “सर्बत दा भला”


कार्तिक पूर्णिमा, गंगा स्नान का महत्व, पौराणिक संदर्भ, ऐतिहासिक दृष्टिकोण, वैज्ञानिक आधार और समाजिक प्रभाव।

कार्तिक पूर्णिमा गंगा स्नान धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का प्रतीक है। कार्तिक पूर्णिमा, गंगा स्नान का महत्व, पौराणिक संदर्भ, ऐतिहासिक दृष्टिकोण, वैज्ञानिक आधार और समाजिक प्रभाव।



कार्तिक पूर्णिमा और गंगा स्नान : एक विस्तृत धार्मिक एवं सांस्कृतिक विवेचन

भूमिका

भारत त्योहारों का देश है, जहाँ हर पर्व केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन जीने की प्रेरणा है। इन्हीं पर्वों में से एक है  कार्तिक पूर्णिमा
यह दिन हिंदू पंचांग के अनुसार कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को आता है, जिसे देव दीपावली, गुरु पर्व और गंगा स्नान पर्व के रूप में भी जाना जाता है।
इस दिन गंगा स्नान करने का अत्यधिक धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व बताया गया है। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन किया गया स्नान, दान, दीपदान और व्रत हजारों यज्ञों के फल के समान होता है।

कार्तिक पूर्णिमा का समय और खगोलीय स्थिति

कार्तिक पूर्णिमा वह तिथि है जब चंद्रमा अपनी पूर्ण अवस्था में होता है और सूर्य तुला राशि में स्थित रहता है।
चंद्रमा की पूर्णता का अर्थ है ऊर्जा का उत्कर्ष, और यह वही समय है जब जल तत्व की शक्ति अपने चरम पर होती है। गंगा जैसी दिव्य नदी में स्नान करने से मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा तीनों की शुद्धि होती है।

2025 में कार्तिक पूर्णिमा 5 नवंबर को पड़ेगी। इस दिन गंगा स्नान और दीपदान का मुहूर्त सायं 5:15 बजे से 7:50 बजे तक शुभ रहेगा।

गंगा का धार्मिक महत्त्व

गंगा केवल एक नदी नहीं, बल्कि भारत की आध्यात्मिक चेतना की धारा है।
पुराणों में गंगा को “त्रिपथगा” कहा गया है — अर्थात जो स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल तीनों लोकों में प्रवाहित होती है।
गंगा का जल अमृत के समान माना गया है। इसका स्पर्श मात्र ही पापों का नाश करता है, ऐसा विश्वास है।

पद्मपुराण और स्कंदपुराण में कहा गया है कि —

“कार्तिके पूर्णिमायां तु गङ्गायां यः स्नानं करोति, स सर्वपापैः विमुक्तो ब्रह्मलोकं गच्छति।”
अर्थात जो व्यक्ति कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा में स्नान करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर ब्रह्मलोक की प्राप्ति करता है।

गंगा स्नान का पौराणिक संदर्भ

पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए कठोर तप किया, तब भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में धारण किया।
गंगा का यह अवतरण कार्तिक मास की पूर्णिमा को हुआ माना जाता है। इसी कारण इस दिन गंगा में स्नान का विशेष महत्त्व है।

एक अन्य कथा के अनुसार, इस दिन देवताओं ने असुरों पर विजय प्राप्त की थी, इसलिए इसे देव दीपावली भी कहा जाता है। गंगा के घाटों पर दीप जलाकर देवताओं का स्वागत किया जाता है।

गंगा स्नान का धार्मिक विधान

कार्तिक पूर्णिमा के दिन प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठकर पवित्र नदियों  विशेषकर गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा या कावेरी में स्नान करना चाहिए।
यदि ये नदियाँ सुलभ न हों, तो घर में ही गंगाजल मिलाकर स्नान किया जा सकता है।

स्नान की विधि:

  1. स्नान से पहले भगवान विष्णु, माता गंगा और सूर्यदेव का स्मरण करें।
  2. जल में डुबकी लगाते समय यह मंत्र बोलें 

    “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः।”

  3. स्नान के बाद तिल, चावल, दान-दक्षिणा और दीपदान करें।
  4. तुलसी के पौधे के नीचे दीप जलाना अत्यंत शुभ माना गया है।
  5. रात्रि में दीपदान कर गंगा आरती का दर्शन करें।

गंगा स्नान का आध्यात्मिक महत्व

गंगा स्नान केवल शारीरिक स्वच्छता नहीं, बल्कि आत्मिक शुद्धि का प्रतीक है।
गंगा को “मुक्तिदायिनी” कहा गया है, क्योंकि यह मनुष्य के भीतर के नकारात्मक विचारों, पापों और अहंकार को धो देती है।
स्नान के समय की गई प्रार्थना व्यक्ति को संस्कारों से जोड़ती है और जीवन में नई ऊर्जा का संचार करती है।

देव दीपावली और गंगा आरती का दृश्य

वाराणसी, प्रयागराज, हरिद्वार, ऋषिकेश, पटना और गया जैसे तीर्थस्थलों पर इस दिन का दृश्य अद्भुत होता है।
गंगा घाटों पर लाखों दीप जलते हैं, जिनकी झिलमिल रोशनी पानी में प्रतिबिंबित होकर स्वर्गिक आभा का निर्माण करती है।
वाराणसी के दशाश्वमेध घाट पर होने वाली गंगा आरती विश्वप्रसिद्ध है।
देवताओं के स्वागत के रूप में दीप जलाने की यह परंपरा हजारों वर्ष पुरानी है।

दान और व्रत का महत्व

कार्तिक पूर्णिमा के दिन अन्नदान, वस्त्रदान, गौदान, दीपदान और तिलदान करने का विशेष पुण्य बताया गया है।
शास्त्रों में कहा गया है कि कार्तिक मास में किया गया दान अक्षय फल प्रदान करता है।
इस दिन व्रत रखने और भगवान विष्णु तथा शिव की पूजा करने से जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट होते हैं।

गुरु नानक जयंती का समन्वय

बहुत बार कार्तिक पूर्णिमा के दिन गुरु नानक देव जी की जयंती भी पड़ती है।
इसलिए यह दिन हिंदू और सिख दोनों परंपराओं के लिए अत्यंत पवित्र है।
गुरुद्वारों में दीवाली जैसी सजावट, भजन-कीर्तन और लंगर का आयोजन होता है।
यह भारत की धार्मिक एकता और समरसता का प्रतीक है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गंगा स्नान

गंगा का जल केवल पवित्र ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी अद्भुत है।
अनुसंधानों में पाया गया है कि गंगा के जल में ऐसे जीवाणुनाशक तत्व हैं जो लंबे समय तक पानी को शुद्ध रखते हैं।
स्नान के दौरान व्यक्ति ठंडे जल के संपर्क में आता है, जिससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
साथ ही सामूहिक स्नान से समाज में समानता, एकता और भाईचारे का भाव विकसित होता है।

सांस्कृतिक पक्ष

कार्तिक पूर्णिमा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक उत्सव भी है।
इस दिन देशभर में मेला, भजन संध्या, दीपोत्सव, सांस्कृतिक कार्यक्रम और नौका विहार का आयोजन होता है।
वाराणसी की देव दीपावली, पुष्कर मेला, तिरुपति ब्रह्मोत्सव, हरिद्वार की गंगा आरती  ये सभी इस पर्व के जीवंत प्रतीक हैं।

पुष्कर मेला और कार्तिक स्नान

राजस्थान के पुष्कर में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाला मेला विश्व प्रसिद्ध है।
यहाँ लाखों श्रद्धालु सरोवर में स्नान करते हैं और भगवान ब्रह्मा के मंदिर में पूजा करते हैं।
कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने इसी दिन पुष्कर में यज्ञ किया था, इसलिए इसे ब्रह्मा स्नान दिवस भी कहा जाता है।

गंगा स्नान के आधुनिक आयाम

आज के युग में गंगा स्नान केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि पर्यावरण जागरूकता का माध्यम बनता जा रहा है।
गंगा की स्वच्छता, जल संरक्षण, और नदी की पारिस्थितिकी के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है।
सरकार द्वारा चलाए जा रहे “नमामि गंगे अभियान” ने इस दिशा में नई चेतना का संचार किया है।

भक्तों की आस्था और अनुभव

हर साल करोड़ों श्रद्धालु गंगा तटों पर इकट्ठा होते हैं।
उनके चेहरों पर दिव्यता की आभा झलकती है।
गंगा स्नान के बाद लोग कहते हैं 

“ऐसा लगता है जैसे आत्मा ने नया जन्म लिया हो।”

यह अनुभूति केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि मन की गहराई तक पहुँचने वाला अनुभव है।

गंगा स्नान और योगिक दृष्टिकोण

योग के दृष्टिकोण से गंगा स्नान मन की प्राणशक्ति को शुद्ध करने का अभ्यास है।
जल तत्व शरीर के पंचतत्वों में से एक प्रमुख तत्व है, और गंगा में स्नान कर व्यक्ति अपने भीतर के जल तत्व को संतुलित करता है।
इससे मानसिक स्थिरता, सकारात्मकता और शांति का अनुभव होता है।

गंगा स्नान और मोक्ष सिद्धांत

हिंदू धर्म में माना गया है कि जो व्यक्ति गंगा स्नान कर, गंगा तट पर दीपदान करता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।
वाराणसी, हरिद्वार, गया, प्रयागराज जैसे तीर्थस्थल मोक्षदायिनी भूमि कहलाते हैं।
गंगा के तट पर प्राण त्यागना तो सीधा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग माना गया है।

निष्कर्ष

कार्तिक पूर्णिमा और गंगा स्नान का यह पर्व केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि मानव और प्रकृति के अद्भुत मिलन का प्रतीक है।
यह पर्व हमें सिखाता है कि शुद्धता केवल शरीर की नहीं, बल्कि विचारों की भी आवश्यक है।
गंगा की निर्मल धारा हमें यही संदेश देती है 

“जियो, पर निर्मलता के साथ; बहो, पर जीवन को सींचते हुए।”

इस दिन गंगा स्नान कर हम केवल परंपरा नहीं निभाते, बल्कि अपनी आध्यात्मिक यात्रा को आगे बढ़ाते हैं।
यह पर्व हर व्यक्ति को अपने भीतर झाँकने, जीवन को पवित्र बनाने और समाज में प्रकाश फैलाने की प्रेरणा देता है।

प्रेरक वाक्य

“गंगा केवल नदी नहीं, माँ है  जो पापों को धोती है, और आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाती है।”
“कार्तिक पूर्णिमा का स्नान  शरीर की नहीं, आत्मा की सफाई का पर्व है।”


गुरु नानक देव जी के जन्म दिवस और सिख धर्म की मूल शिक्षाओं से जुड़ा हुआ है। जिसमें इतिहास, महत्व, परंपराएं, आध्यात्मिक दृष्टिकोण, सामाजिक संदेश, और आधुनिक युग में इसका प्रभाव शामिल है।

प्रकाश पर्व धार्मिक और ऐतिहासिक विषय है, जो गुरु नानक देव जी के जन्म दिवस और सिख धर्म की मूल शिक्षाओं से जुड़ा हुआ है। जिसमें इतिहास, महत्व, परंपराएं, आध्यात्मिक दृष्टिकोण, सामाजिक संदेश, और आधुनिक युग में इसका प्रभाव शामिल है।



प्रकाश पर्व  एक आध्यात्मिक उजास का उत्सव

प्रस्तावना

भारत की भूमि विविधता और अध्यात्म से ओतप्रोत है। यहाँ हर पर्व का अपना विशिष्ट संदेश और महत्त्व है। इन्हीं पावन उत्सवों में से एक है “प्रकाश पर्व”, जिसे “गुरु नानक जयंती” या “गुरुपर्व” भी कहा जाता है।
यह दिन सिख धर्म के प्रथम गुरु श्री गुरु नानक देव जी के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व केवल सिखों का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए ज्ञान, समानता, और प्रेम का प्रतीक है।

गुरु नानक देव जी का जन्म कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन हुआ था। अतः हर वर्ष यह पर्व कार्तिक पूर्णिमा के दिन बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है। इस दिन को “प्रकाश उत्सव” इसलिए कहा जाता है क्योंकि गुरु नानक जी का जन्म मानो संसार में आध्यात्मिक प्रकाश का अवतरण था।

गुरु नानक देव जी का जीवन परिचय

प्रारंभिक जीवन

गुरु नानक देव जी का जन्म सन् 1469 ई. में तलवंडी नामक स्थान पर हुआ, जिसे आज ननकाना साहिब कहा जाता है और यह अब पाकिस्तान में स्थित है।
उनके पिता का नाम मेहता कालू चंद तथा माता का नाम माता तृप्ता था। बचपन से ही नानक देव जी असाधारण बुद्धिमान, संवेदनशील और ईश्वर-भक्त थे।

बाल्यावस्था में ही उन्होंने संसार की भौतिकता से ऊपर उठकर सत्य और प्रेम की राह अपनाई।
वे कहा करते थे 

“ना कोई हिंदू, ना कोई मुसलमान, सब मनुष्य ईश्वर की संतान हैं।”

यह वाक्य ही उनके जीवन दर्शन का सार है  समानता, एकता और प्रेम।

गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ

गुरु नानक देव जी ने धर्म को कर्म से जोड़ा। उन्होंने कहा कि केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि सच्चाई, परिश्रम और सेवा ही सच्चा धर्म है।
उनकी मुख्य शिक्षाओं को “तीन स्तंभों” के रूप में समझा जाता है 

  1. नाम जपो (ईश्वर का स्मरण)
    सच्चे मन से परमात्मा का नाम जपना और जीवन को आध्यात्मिक बनाना।

  2. किरत करो (ईमानदारी से परिश्रम करो)
    किसी का शोषण किए बिना अपनी जीविका चलाना।

  3. वंड छको (बाँटकर खाना)
    समाज में समानता और करुणा की भावना रखना, और जरूरतमंदों की सहायता करना।

इसके साथ ही उन्होंने “एक ओंकार सतनाम” का संदेश दिया अर्थात ईश्वर एक है, वह सर्वव्यापक और सत्य स्वरूप है।

प्रकाश पर्व का धार्मिक महत्त्व

यह दिन गुरु नानक देव जी के रूप में धरती पर आए ज्ञान और सत्य के प्रकाश का प्रतीक है।
इस दिन सिख श्रद्धालु सुबह से ही गुरुद्वारों में एकत्र होते हैं।
गुरु ग्रंथ साहिब का अखंड पाठ, कीर्तन, लंगर, और नगर कीर्तन इस पर्व के प्रमुख अंग हैं।

गुरुद्वारों को दीपों, मोमबत्तियों और फूलों से सजाया जाता है।
रात के समय दीपमालिका का दृश्य अत्यंत मनमोहक होता है।
हर ओर प्रेम, भक्ति और एकता का वातावरण छा जाता है।

प्रकाश पर्व का इतिहास

गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन में चारों दिशाओं में चार उदासियाँ (यात्राएँ) कीं।
उन्होंने भारत, तिब्बत, अफगानिस्तान, अरब, श्रीलंका और अनेक स्थानों पर जाकर सत्य, प्रेम और समानता का संदेश फैलाया।

उनकी शिक्षाओं से प्रेरित होकर अनेक लोगों ने जात-पात, ऊँच-नीच और धार्मिक अंधविश्वासों को त्याग दिया।
उनके विचारों ने भारत में सामाजिक सुधार और धार्मिक सहिष्णुता की नई धारा प्रवाहित की।

इसलिए जब उनका जन्म दिवस आता है, तो सिख समाज ही नहीं, हर धर्म के लोग इसे “प्रकाश पर्व” के रूप में मनाते हैं।

गुरुद्वारों में उत्सव की झलक

अखंड पाठ

गुरु नानक जयंती से दो दिन पहले से ही गुरु ग्रंथ साहिब का अखंड पाठ आरंभ होता है, जो 48 घंटे तक लगातार चलता है।
यह पाठ आध्यात्मिक वातावरण बनाता है और श्रद्धालुओं को गुरु वाणी से जोड़े रखता है।

नगर कीर्तन

अखंड पाठ के बाद नगर कीर्तन निकाला जाता है। इसमें पंच प्यारे (पाँच सिख प्रतिनिधि) गुरु ग्रंथ साहिब की पालकी लेकर नगर भ्रमण करते हैं।
संगत भजन-कीर्तन करती हुई चलती है, और लोग सड़कों के किनारे खड़े होकर श्रद्धापूर्वक झाँकी देखते हैं।

लंगर (सामूहिक भोजन)

प्रकाश पर्व की सबसे सुंदर परंपरा है लंगर जहाँ जात-पात, ऊँच-नीच का कोई भेद नहीं होता।
हर व्यक्ति, चाहे अमीर हो या गरीब, एक साथ बैठकर भोजन करता है। यह गुरु नानक की समानता की शिक्षा का सजीव उदाहरण है।

गुरु नानक जी के उपदेशों की आधुनिक प्रासंगिकता

आज का समाज भौतिकता, असमानता और संघर्ष से जूझ रहा है।
गुरु नानक देव जी के संदेश आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने 550 वर्ष पूर्व थे।
उन्होंने कहा था 

“विच दूनिया सेव कमाईए, तां दरगह बैठा पाईए।”
अर्थात् संसार में रहकर सेवा करना ही सच्चा धर्म है।

उनके विचार हमें सिखाते हैं कि धर्म का अर्थ पूजा या कर्मकांड नहीं, बल्कि मानवता की सेवा है।

प्रकाश पर्व और भारतीय संस्कृति

भारत में हर धर्म का एक उद्देश्य है  अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाना।
गुरु नानक देव जी ने भी यही कार्य किया।
उन्होंने लोगों को सिखाया कि सच्चा ईश्वर हमारे भीतर है और हमें अपने मन को निर्मल बनाना चाहिए।

प्रकाश पर्व केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि आध्यात्मिक जागरण का पर्व है।
यह हमें आत्मा के भीतर बसे ईश्वर का अनुभव कराता है।

प्रकाश पर्व के प्रतीक

  1. दीपक (प्रकाश)  अज्ञान के अंधकार को दूर करने का प्रतीक।
  2. कीर्तन आत्मा को शुद्ध करने वाला संगीत।
  3. लंगर सामाजिक समानता का प्रतीक।
  4. सेवा (संगत)  करुणा और सहयोग का प्रतीक।
  5. एक ओंकार  ब्रह्म का अद्वितीय स्वरूप।

गुरु नानक जी के कुछ प्रसिद्ध विचार

  1. “ईश्वर एक है, वही सत्य है।”
  2. “सच्चा व्यापारी वही है जो सच्चाई का व्यापार करे।”
  3. “जो दूसरों के दुख को समझे, वही सच्चा मनुष्य है।”
  4. “बिना प्रेम के ईश्वर प्राप्त नहीं हो सकता।”
  5. “मनुष्य का असली धर्म है सेवा, करुणा और सत्य।”

प्रकाश पर्व के सामाजिक संदेश

  • समानता का संदेश: सभी मनुष्य समान हैं।
  • नारी सम्मान: गुरु नानक जी ने कहा 

    “सो क्यों मंदा आखिए, जित जन्मे राजान।”
    अर्थात स्त्री को कभी हीन नहीं कहना चाहिए, क्योंकि उसी के गर्भ से राजा जन्म लेते हैं।

  • भाईचारा: उन्होंने प्रेम और एकता का मार्ग दिखाया।
  • श्रम की गरिमा: हर काम ईश्वर की पूजा है।

प्रकाश पर्व और पर्यावरण

गुरु नानक जी प्रकृति को ईश्वर का रूप मानते थे।
उनका कथन है 

“पवण गुरु, पानी पिता, माता धरत महत।”
अर्थात् हवा गुरु है, पानी पिता है और धरती माता है।
इससे वे हमें पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते हैं।

आज जब पृथ्वी प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन से जूझ रही है,
उनकी यह वाणी हमें प्रकृति के प्रति श्रद्धा और जिम्मेदारी का भाव देती है।

दुनिया भर में प्रकाश पर्व का उत्सव

भारत ही नहीं, बल्कि ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, मलेशिया, दुबई जैसे देशों में भी सिख समुदाय बड़े उत्साह से प्रकाश पर्व मनाता है।
गुरुद्वारों में कीर्तन दरबार आयोजित किए जाते हैं, और मानवता की सेवा के लिए विशेष अभियान चलाए जाते हैं।

यह दिन अब एक वैश्विक भाईचारे का उत्सव बन चुका है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्त्व

गुरु नानक देव जी का जीवन यह सिखाता है कि सच्चा प्रकाश भीतर से आता है
दीप जलाना प्रतीक है  पर वास्तविक प्रकाश है ज्ञान और प्रेम का उजाला
प्रकाश पर्व हमें याद दिलाता है कि हमें अपने भीतर के अंधकार  जैसे घृणा, ईर्ष्या, लोभ  को मिटाकर सच्चे आत्मप्रकाश को जगाना चाहिए।

निष्कर्ष

प्रकाश पर्व केवल गुरु नानक देव जी के जन्म दिवस का उत्सव नहीं, बल्कि मानवता के पुनर्जागरण का प्रतीक है।
यह हमें सिखाता है 

“जहाँ प्रेम है, वहीं परमात्मा है।”

गुरु नानक देव जी का जीवन और उनके उपदेश हमें आज भी दिशा दिखाते हैं कि सच्चा धर्म है 
सत्य बोलना, परिश्रम करना, और सबके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करना।

इस प्रकार प्रकाश पर्व केवल दीयों का नहीं, बल्कि मानव आत्मा के उजाले का पर्व है 
जो हर वर्ष हमें याद दिलाता है कि अंधकार चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो,
प्रकाश की एक किरण सब कुछ बदल सकती है।


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