Sunday, December 7, 2025

अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन मानव सभ्यता के सबसे प्रभावशाली, परिवर्तनकारी और व्यापक आयामों में से एक है।

अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन दिवस 

अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन मानव सभ्यता के सबसे प्रभावशाली, परिवर्तनकारी और व्यापक आयामों में से एक है। आकाश में उड़ने का स्वप्न मनुष्य ने सदियों से देखा था, किंतु बीसवीं सदी में यह स्वप्न न केवल साकार हुआ, बल्कि उसने पूरे विश्व की दिशा और गति को ही बदल दिया। आज नागरिक उड्डयन केवल यात्रियों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने का साधन नहीं है, बल्कि यह आधुनिक अर्थव्यवस्था की रीढ़, वैश्विक कूटनीति का माध्यम, सांस्कृतिक आदान–प्रदान का सेतु और वैश्वीकरण का वास्तविक इंजन बन चुका है। अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन दिवस हर वर्ष 7 दिसंबर को इसी महत्त्व को स्मरण करने, उपलब्धियों को रेखांकित करने और सुरक्षित व स्थायी भविष्य के लिए प्रण लेना का अवसर प्रदान करता है।

नागरिक उड्डयन का इतिहास मूलतः उस क्षण से आरंभ होता है जब राइट बंधुओं ने 1903 में पहली नियंत्रित, स्थायी और मोटर-संचालित उड़ान भरी। यह उड़ान एक अत्यंत छोटा कदम थी, परंतु इसके अर्थ अत्यंत विशाल थे—मानव ने पहली बार गुरुत्वाकर्षण की प्राकृतिक सीमा को चुनौती देकर स्वयं को एक नए आयाम में प्रवेश कराया। यही वह क्षण था जिसने आगे आने वाले वर्षों में न केवल युद्ध, व्यापार या अन्वेषण को बदल दिया, बल्कि मानव जीवन, समय, दूरी और गति की परिभाषाओं को ही पुनर्लेखित कर दिया। प्रारंभिक वर्षों में विमान केवल साहसी खोजकर्ताओं या सैन्य अभियानों तक सीमित थे, किंतु धीरे–धीरे तकनीकी सुधारों, सुरक्षित इंजन, लंबी दूरी के विमानों और बेहतर संचालन प्रणालियों ने इसे जनसामान्य के लिए सुलभ बनाया।

अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन को संगठित स्वरूप देने का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय 1944 में "शिकागो सम्मेलन" से आरंभ हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतकाल में 52 देशों ने यह समझ लिया था कि आने वाले समय में हवाई यात्रा न केवल बढ़ेगी, बल्कि इसके सुचारु संचालन, नियमों की एकरूपता, सुरक्षा मानकों और अंतरराष्ट्रीय मार्गों की परिभाषा के लिए एक वैश्विक संस्था की आवश्यकता होगी। इसी सम्मेलन के परिणामस्वरूप 1947 में ICAO – International Civil Aviation Organization अस्तित्व में आई। ICAO ने न केवल हवाई यात्रा को सुव्यवस्थित किया, बल्कि विश्वभर के देशों के बीच एक ऐसा तंत्र स्थापित किया जो सीमाओं से परे जाकर सहयोग, सुरक्षा और सतत विकास का प्रतीक बन गया।

सुरक्षा, नागरिक उड्डयन का पहला और सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ है। विमानन उद्योग में प्रत्येक प्रक्रिया—चाहे वह पायलट प्रशिक्षण हो, विमान निर्माण हो, वायु यातायात नियंत्रण हो या हवाई अड्डा संचालन—सैकड़ों सुरक्षा मानकों से गुजरती है। ICAO ने सुरक्षा के लिए "सार्स" (SARPs—Standards and Recommended Practices) जैसी विस्तृत अधिसूचनाएं जारी कीं, जिन्हें सभी सदस्य देश लागू करते हैं। आधुनिक हवाई यात्रा इतनी सुरक्षित है कि सांख्यिकीय रूप से विमान दुर्घटनाओं की संभावना सड़क दुर्घटनाओं की तुलना में अत्यंत कम है। यह प्रगति तकनीकी नवाचारों, रडार प्रणालियों, उपग्रह–आधारित नेविगेशन, स्वचालित नियंत्रण तंत्र, प्रशिक्षण के आधुनिक तरीकों और अंतरराष्ट्रीय सहयोग का प्रतिफल है।

नागरिक उड्डयन केवल यात्रा नहीं है; यह देशों की आर्थिक और सामाजिक उन्नति का भी आधार है। विश्व की लगभग एक तिहाई व्यापारिक वस्तुएँ, विशेषकर उच्च–मूल्य वाले इलेक्ट्रॉनिक्स, दवाएँ, मशीनरी और नाजुक सामग्री, हवाई मार्ग से परिवहन की जाती हैं। पर्यटन उद्योग, जो अनेक देशों की अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष योगदान देता है, विमानन के बिना असंभव है। एक अध्ययन के अनुसार नागरिक उड्डयन विश्व अर्थव्यवस्था में खरबों डॉलर का योगदान करता है और करोड़ों लोगों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रोजगार उपलब्ध कराता है। एयरलाइंस, हवाई अड्डे, ग्राउंड स्टाफ, इंजीनियर्स, पायलट्स, केबिन क्रू, कैटरिंग सर्विस, सुरक्षा विभाग—ये सभी मिलकर एक विशाल आर्थिक ईकोसिस्टम का निर्माण करते हैं।

अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन ने दुनिया को छोटा बना दिया है। पहले जो दूरी महीनों में तय होती थी, अब कुछ घंटों में पूरी हो जाती है। इससे न केवल व्यापार बढ़ा, बल्कि मानव संबंधों में भी अभूतपूर्व परिवर्तन आया। परिवार अधिक जुड़े, संस्कृति का आदान–प्रदान सहज हुआ, अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों, शिक्षा, स्वास्थ्य और आपदा प्रबंधन में भी विमानन ने अमूल्य योगदान दिया। प्राकृतिक आपदाओं के समय राहत सामग्री, बचाव दल और दवाओं को तुरंत प्रभावित क्षेत्रों तक पहुँचाने में एयरलिफ्ट ऑपरेशन्स महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

पर्यावरणीय चुनौतियाँ आधुनिक नागरिक उड्डयन के सामने सबसे बड़ी परीक्षा के रूप में खड़ी हैं। विमानों से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को कम करना, वैकल्पिक ईंधन जैसे—सस्टेनेबल एविएशन फ्यूल (SAF), इलेक्ट्रिक विमान, हाइड्रोजन–संचालित प्रणालियाँ—ये सभी भविष्य की दिशा तय करते हैं। विश्वभर की एयरलाइंस और हवाई अड्डे कार्बन–न्यूट्रल बनने की दिशा में काम कर रहे हैं। ICAO ने "CORSIA" कार्यक्रम के माध्यम से कार्बन ऑफसेटिंग के अंतरराष्ट्रीय मानक बनाए हैं, जो विमानन को पर्यावरण–अनुकूल बनाने का मार्ग खोलते हैं।

तकनीकी प्रगति ने नागरिक उड्डयन को निरंतर बदलते रहने वाला क्षेत्र बना दिया है। पहले जहां नेविगेशन पृथ्वी के चिह्नों पर आधारित था, वहीं आज उपग्रह–आधारित प्रणालियाँ अत्यंत सटीक मार्गदर्शन प्रदान करती हैं। उड़ान इंजनों में सुधार ने ईंधन खपत कम की है, हवाई अड्डों का डिज़ाइन अधिक व्यवस्थित हुआ है, और आधुनिक स्कैनर सुरक्षा को तेज और प्रभावी बनाते हैं। डिजिटल टिकटिंग, स्वचालित चेक-इन, बायोमेट्रिक बोर्डिंग, एआई आधारित ट्रैफिक मैनेजमेंट—ये सभी नागरिक उड्डयन की दक्षता बढ़ाने वाले नवाचार हैं।

भारत के संदर्भ में नागरिक उड्डयन की यात्रा अत्यंत प्रेरक है। आज भारत विश्व के सबसे तेजी से बढ़ते विमानन बाज़ारों में से एक है। UDAN (“उड़े देश का आम नागरिक”) जैसी योजनाओं ने छोटे शहरों को हवाई नेटवर्क से जोड़ा, जिससे सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा मिला। नए अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों का निर्माण, एयरलाइंस का विस्तार, ड्रोन नीति, और आधुनिक नेविगेशन प्रणाली—ये सब भारत को वैश्विक उड्डयन के प्रमुख केंद्रों में शामिल कर रहे हैं।

अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन दिवस केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि एक संदेश भी है—कि मनुष्य की प्रगति तब संभव है जब दुनिया एक साथ आगे बढ़े। विमानन सीमाओं को नहीं मानता; यह सहयोग, सद्भाव, गतिशीलता और मानवता के साझा भविष्य का प्रतीक है। इस दिन हम उन पायलटों, इंजीनियरों, वैज्ञानिकों, वायु यातायात नियंत्रकों, सुरक्षा कर्मियों, विमान निर्माण विशेषज्ञों और उन सभी लोगों को सम्मान देते हैं जिनके योगदान से वैश्विक आकाश सुरक्षित और सक्रिय रहता है।

आधुनिक दुनिया की गति नागरिक उड्डयन पर निर्भर है। हम चाहे वैश्विक अर्थव्यवस्था की बात करें, सांस्कृतिक संबंधों की चर्चा करें, वैज्ञानिक खोजों की बात करें या फिर मानवीय सहायता की—हर क्षेत्र में विमानन अग्रणी भूमिका निभा रहा है। यह केवल मशीनों और इंजनों की कहानी नहीं, बल्कि मानव साहस, नवाचार, सहयोग और प्रगति का महाकाव्य है। नागरिक उड्डयन हमें यह याद दिलाता है कि जब मनुष्य सपनों को पंख देता है, तो आकाश भी सीमा नहीं रह जाता।


शरद ऋतु का आगमन भारतीय उपमहाद्वीप में एक अद्भुत सौंदर्य लेकर आता है। वर्षा की थकान से निढाल पृथ्वी जब हल्की ठंडक की चादर ओढ़ने लगती है।

 


शरदी का समय प्रकृति, मन और जीवन का उजास

शरद ऋतु का आगमन भारतीय उपमहाद्वीप में एक अद्भुत सौंदर्य लेकर आता है। वर्षा की थकान से निढाल पृथ्वी जब हल्की ठंडक की चादर ओढ़ने लगती है, तो लगता है जैसे प्रकृति स्वयं एक उत्सव की तैयारी में जुट गई हो। बादलों के बोझिल झुंड अब छँट चुके होते हैं, आकाश का विस्तार गाढ़े नीले रंग में चमकने लगता है और सूरज अपनी उजली, निर्दोष किरणों से धरती को स्नान कराता सा प्रतीत होता है। यह समय केवल मौसम का परिवर्तन नहीं, बल्कि मानसिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से भी मानव-जीवन में एक नए अध्याय का उद्घाटन है।

शरद वह ऋतु है जिसमें वातावरण की शुद्धता अपने चरम पर होती है। हेमंत की ठिठुरन और ग्रीष्म की तपन से दूर, यह मौसम अपने संतुलित तापमान के लिए जाना जाता है। दिन धीरे-धीरे सुहावने होते जाते हैं और रातें कोमल ठंडक से भरने लगती हैं। प्रातःकालीन ओस की बूँदें जब घास की नोकों पर चमकती हैं, तो लगता है जैसे किसी अनदेखे कलाकार ने अनगिनत कांच के मोतियों से पृथ्वी को सजा दिया हो। यह दृश्य मानव मन को एक ऐसी ताजगी देता है जो किसी औषधि से कम नहीं।

इस समय खेतों में फसलों का रंग बदलने लगता है। धान की बालियाँ सुनहरी आभा लिए मंद हवा के स्पर्श से झूमने लगती हैं। किसान के चेहरे पर आशा के नए रेखाचित्र उभर आते हैं। शरद का सौंदर्य केवल प्रकृति में ही नहीं, बल्कि मनुष्य के श्रम और आशा के मेल में भी दिखता है। खेतों में चलती हल्की हवा किसान को आने वाले दिनों की खुशहाली का संकेत देती है। इसी ऋतु में कई क्षेत्रों में नई फसल की पूजा होती है, जिसे अन्नकूट, नवधान्य या नववर्ष आरंभ का प्रतीक माना जाता है।

शरद, हिंदी साहित्य में भी अत्यंत प्रिय ऋतु है। कवियों और लेखकों ने इसे शांति, पवित्रता और उजास का प्रतीक माना है। आकाश की स्वच्छता को मन की निर्मलता का रूपक बनाया गया है। दिन की उजली धूप को आशा और व्यापकता का संकेत बताया गया है। चंद्रमा की शीतल, पूर्ण कलाओं वाली रातों में प्रेम, करुणा और सौंदर्य का अमृत छलकता सा महसूस होता है। शरद पूर्णिमा की रात तो मानो चंद्रमा का उत्सव होती है—जहाँ उसकी शीतल रोशनी पृथ्वी पर दूधिया धार की तरह बिखर जाती है। ऐसा लगता है जैसे आकाश स्वयं धरती के लिए कोई उपहार लेकर उतरा हो।

इस मौसम में पर्व-त्योहारों की भरमार रहती है। नवरात्रि, दशहरा, शरद पूर्णिमा, करवाचौथ, धनतेरस, दीपावली—सब इसी समय के आसपास आते हैं। शरद ऋतु केवल प्रकृति का परिवर्तन नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक चेतना का भी उजास है। घरों में सजावट, पूजा, संगीत, दीप, मिठाइयाँ और पारिवारिक मिलन—सब मिलकर इस मौसम को जीवन के सबसे आनंदमय समयों में बदल देते हैं। दीपावली की रात जब छोटे-बड़े शहरों और गाँवों में दीपों की श्रृंखला जगमगाती है, तो यह दृश्य केवल सौंदर्य ही नहीं, बल्कि अंधकार पर प्रकाश की विजय का संदेश भी देता है।

शरदी हवा में कुछ ऐसा खिंचाव होता है जो मन को स्थिर भी करता है और उत्साह से भर भी देता है। यह समय आत्मचिंतन, आत्मसंयम और साधना के लिए सर्वोत्तम माना गया है। योग और ध्यान करने वाले साधकों के लिए यह मौसम विशेष प्रिय है, क्योंकि इस समय वातावरण में नमी और तापमान दोनों ही संतुलित रहते हैं। कहा जाता है कि शरद की रातों में ध्यान करने से मन अधिक एकाग्र होता है और प्रकृति के सूक्ष्म स्पंदन से मनुष्य शीघ्र जुड़ जाता है।

यह मौसम साहित्य और कला के विकास के लिए भी अनुकूल है। कवि, लेखक, चित्रकार और संगीतकार—सब इस समय प्रकृति के नवपरिवर्तन से प्रेरणा पाते हैं। नीले विस्तृत आकाश, पारदर्शी चाँदनी, हवा की धीमी गूँज, और दूर तक पसरी शांति—यह सब मिलकर रचनात्मकता के द्वार खोल देता है। इसलिए कई महान काव्य, गीत और चित्र इसी ऋतु की पृष्ठभूमि में रचे गए हैं।

शरद का समय सामाजिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। यह फसल कटाई की शुरुआत का संकेत देता है, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में नया जोश आता है। ग्रामीण मेले, हाट, बाजार—सब इस मौसम में अधिक सक्रिय होते हैं। लोग वर्षा में रुके हुए कामों को आगे बढ़ाते हैं। शादी-विवाह और शुभ संस्कारों का आरंभ भी प्रायः इसी समय से माना जाता है, क्योंकि शरद तुलसी विवाह के बाद मंगलकारी महीना माना जाता है।

इस मौसम की शीतलता और सुंदरता के बावजूद, शरद कुछ चुनौतियाँ भी लेकर आता है। आकाश के साफ हो जाने से दिन में धूप कुछ तेज महसूस हो सकती है, और कई स्थानों में रात-दिन के तापमान में अंतर से शरीर पर प्रभाव पड़ सकता है। फिर भी, इन चुनौतियों की तुलना में इसके सौंदर्य और लाभ कहीं अधिक हैं। यही कारण है कि भारतीय ऋतु-चक्र में शरद को विशेष स्थान दिया गया है। इसे संतुलन, सौम्यता और पवित्रता की ऋतु कहा गया है।

शरद को अक्सर “स्वच्छता का दूत” भी कहा जाता है। वर्षा के बाद उठी मिट्टी की सुगंध जब धीरे-धीरे शांत होने लगती है, तो वातावरण अधिक स्वच्छ और पारदर्शी हो जाता है। हवा में धूल-गर्द कम हो जाती है, जिससे दूर तक के दृश्य स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं। पर्वत, नदियाँ, खेत, वन—सब अपनी असली चमक में लौट आते हैं। यह मौसम प्रकृति के असली रूप का एहसास कराता है, जो वर्षा में छुपा रहता है और ग्रीष्म में धूप की तीव्रता से दबा रहता है।

शरदी समय में खास बात यह है कि इसमें न तो वर्षा का भय होता है और न ही सर्दी की कठोरता। यह सहज, मधुर और आनंददायक होता है। लोग सुबह-सुबह टहलने निकलते हैं। खेत-खलिहान की ओर जाते किसान, सड़कों पर दौड़ लगाते विद्यार्थी, पार्कों में योग-ध्यान करते बुजुर्ग—ये सभी दृश्य इस मौसम की जीवन्तता को दर्शाते हैं। शरद के दिनों में हवा मानो कहती है — “चलो, जीवन को फिर से नए रंग में जिया जाए।”

इस मौसम का चंद्रमा तो विशेष चर्चा योग्य है। शरद पूर्णिमा की रात को जब चाँद पूरे सौंदर्य से खिला होता है, तब कहा जाता है कि उसकी रोशनी अमृत तुल्य होती है। कई लोग इस रात को खीर बनाकर चाँदनी में रखते हैं और सुबह प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। यह परंपरा केवल धार्मिक नहीं, वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इसमें चाँदनी के शीतल प्रभाव को स्वास्थ्य के लिए उत्तम माना गया है।

शरदी समय का प्रभाव केवल मानव-जीवन तक सीमित नहीं है। पशु-पक्षी भी इस मौसम की ताजगी से प्रभावित होते हैं। गाय-भैंसें अच्छी हरियाली मिलने से अधिक पोषक चारा खाती हैं। पक्षियों की चहचहाहट इस मौसम में अधिक मधुर सुनाई देती है। प्रवासी पक्षियों का आगमन भी शरद में ही आरंभ होता है, जो प्राकृतिक संतुलन और जैव विविधता का महत्वपूर्ण संकेत है।

शरद ऋतु की रातें विशेष रूप से शांत होती हैं। हवा में हल्की ठंडक, वातावरण में मधुर सुगंध और दूर कहीं जलती दीपक की लौ—ये सब मिलकर वातावरण को आध्यात्मिक बनाते हैं। कई लोग इस समय को साधना, पूजा-पाठ और व्रत-उपवास के लिए श्रेष्ठ मानते हैं। नवरात्रि के नौ दिनों का महत्व भी इसी मौसम की पवित्रता से जुड़ा है। यह समय न केवल देवी-भक्ति का, बल्कि आत्मशुद्धि और संयम का भी प्रतीक है।

शरद ऋतु मनोवैज्ञानिक रूप से भी मनुष्य को सकारात्मकता प्रदान करती है। साफ नीला आकाश और उजली धूप मन में ऊर्जा भरते हैं। वातावरण की स्पष्टता मन में भी स्पष्टता लाती है। यह मौसम उन भावनाओं को जन्म देता है जो जीवन को गहराई से देखने की प्रेरणा देती हैं। यही कारण है कि शरद को “विवेक की ऋतु” भी कहा गया है—जहाँ मनुष्य बाहरी संसार के सौंदर्य के साथ-साथ अपने भीतर के सौंदर्य को पहचानने की ओर प्रवृत्त होता है।

शरदी समय को भारतीय संस्कृति में “ऋतुओं का राजा” भी कहा गया है। यह न तो अत्यधिक गर्म होता है, न ही अत्यधिक ठंडा। इसमें जीवन के सभी रंग समाहित होते हैं—उत्सव, आध्यात्मिकता, श्रम, फल, सौंदर्य, प्रेम और शांति। शरद का सौंदर्य किसी एक रूप में नहीं, बल्कि अनेक रूपों में प्रस्फुटित होता है—कहीं खेतों की सुनहरी लहरों में, कहीं आकाश की निर्मलता में, कहीं चंद्रमा की दूधिया आभा में और कहीं दीपावली की जगमगाहट में।

इस ऋतु का महत्व हमारे जीवन के उन पहलुओं को उजागर करता है जिन पर हम अक्सर ध्यान नहीं देते। शरद हमें सिखाता है कि संतुलन जीवन का मूल है। प्रकृति जब संतुलित होती है, तभी उसका सौंदर्य अपने चरम पर होता है। उसी प्रकार जब मनुष्य अपने भीतर संतुलन स्थापित करता है—गति और शांति के बीच, श्रम और विश्राम के बीच, विचार और भावनाओं के बीच—तभी जीवन का असली सौंदर्य प्रकट होता है।

अंत में, शरदी समय का वास्तविक अर्थ उसके सौंदर्य में नहीं, बल्कि उसके संदेश में है। यह हमें याद दिलाता है कि जीवन में हर परिवर्तन एक नई शुरुआत लेकर आता है। वर्षा की अशांति के बाद जब शरद की शांति आती है, तो वह हमें सिखाती है कि संघर्ष के बाद सुकून संभव है। यह हमें धैर्य, आशा और सकारात्मकता का पाठ पढ़ाती है। शरद का प्रकाश केवल धरती को नहीं, मनुष्य के भीतर के अंधकार को भी दूर करने का सामर्थ्य रखता है।


अखुरथ संकष्टी चतुर्थी व्रत हिंदू धर्म में भगवान गणेश के पूजन का एक अत्यंत शुभ, फलदायी और मंगलकारी पर्व है

 

अखुरथ संकष्टी चतुर्थी का व्रत 

अखुरथ संकष्टी चतुर्थी व्रत हिंदू धर्म में भगवान गणेश के पूजन का एक अत्यंत शुभ, फलदायी और मंगलकारी पर्व है, जिसका उल्लेख प्राचीन पुराणों, संहिताओं और लोकग्रंथों में भिन्न-भिन्न नामों के साथ मिलता है। ‘संकष्टी’ शब्द स्वयं में संकटनाशक, संकटों से मुक्ति देने वाला और जीवन में आने वाली बाधाओं का अंत करने वाला सूचक है, जबकि ‘अखुरथ’ भगवान गणेश का एक विशिष्ट नाम है, जिसका अर्थ है “जो अपने भक्तों के सभी कष्टों को असाधारण ढंग से दूर कर उनकी जीवन-यात्रा को सुगम बनाता है।” यह व्रत मुख्य रूप से पौष मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है, किन्तु पंचांग की परंपरा व विविध संप्रदायों में इसे मार्गशीर्ष और माघ कृष्ण चतुर्थियों से भी जोड़ा गया है। संकष्टी चतुर्थी मास में एक बार आती है, लेकिन जब यह मंगलवार या रविवार के दिन पड़ती है तो उसका महत्व कई गुना बढ़ जाता है। अखुरथ नाम इसलिए जुड़ा कि माना जाता है इसी तिथि पर प्रथम पूज्य श्री गणेश जी सभी प्रकार के दुखों को अखंड रूप से काट कर भक्त को एक नई आध्यात्मिक दिशा देते हैं।

भारत के विभिन्न क्षेत्रों महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, उत्तर भारत, ओडिशा और नेपाल तक इस व्रत का पालन अलग-अलग विधियों, परंपराओं और सांस्कृतिक रंगों में देखने को मिलता है। महाराष्ट्र में इसे ‘संकष्टी’ और ‘अंगारकी’ के साथ जोड़कर देखा जाता है, जबकि उत्तर भारत में इसे संकट निवारक चतुर्थी के रूप में पूजा जाता है। दक्षिण भारतीय परंपरा में यह व्रत चंद्र-दर्शन और विशेष नैवेद्य के कारण प्रसिद्ध है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह व्रत स्त्रियों द्वारा अपने परिवार की दीर्घायु, संतान सुख, घर की उन्नति और गणेश-कृपा की प्राप्ति के लिए किया जाता है, जबकि शहरी समाज में भी इस व्रत का प्रभाव और श्रद्धा उतनी ही दुर्लभ और गहन है।

अखुरथ संकष्टी चतुर्थी व्रत का सबसे बड़ा आकर्षण है

उपवास, गणेश पूजन, चंद्र-दर्शन और रात्रि अनुष्ठान, जिनका पालन अत्यंत श्रद्धा और नियमपूर्वक किया जाता है। इस व्रत में भगवान गणेश के ‘अखुरथ’ स्वरूप का ध्यान किया जाता है, जिसे पुराणों में संकट मोचन, विघ्नहर्ता, ज्ञानवर्धक और बुद्धि प्रदायक स्वरूप के रूप में वर्णित किया गया है। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन भगवान गणेश पृथ्वी के वातावरण में अत्यधिक सकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं, जिससे मनुष्य की मानसिक, आध्यात्मिक और सांसारिक बाधाएँ एक-एक कर दूर होने लगती हैं।

व्रत का प्रारंभ प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में स्नान कर संकल्प लेने से होता है। महिलाएँ अक्सर लाल या पीले वस्त्र धारण करती हैं, जो गणेश जी का प्रिय रंग माना जाता है। संकल्प करते समय भक्त अपने मन की इच्छा, लक्ष्य और प्राकृतिक कष्टों से मुक्ति की कामना कर सकते हैं। व्रत की मूल भावना संयम, आत्मशुद्धि और पूर्ण समर्पण पर आधारित होती है। ‘व्रत’ का अर्थ केवल भोजन न करना नहीं, बल्कि मन को पवित्र करना, इंद्रियों पर नियंत्रण करना और अपनी आत्मा को उच्चतर स्तर पर ले जाना है।

पूजन विधि के दौरान भगवान गणेश की प्रतिमा को लाल वस्त्र, दुर्वा, मोदक, लड्डू, रोली और अक्षत अर्पित किए जाते हैं। संकष्टी चतुर्थी की पूजा में विशेष रूप से ‘चतुर्थी व्रत कथा’ सुनना अनिवार्य माना गया है, क्योंकि यह कथा भगवान गणेश द्वारा अपने भक्तों के संकट हरने की दिव्य गाथाएँ बताती है। कथा सुनने से भक्त के चित्त में श्रद्धा, कर्तव्यबोध और दिव्य प्रेरणा का संचार होता है।

इस व्रत का सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है रात्रि का चंद्र-दर्शन। चंद्रमा को इस दिन गणेश जी का विशेष वाहन और शक्ति का स्रोत माना गया है। प्राचीन कथा के अनुसार, गणेश जी ने चंद्रमा को श्राप दिया था, और संकष्टी के दिन उसी श्राप का निवारण हुआ था। इसीलिए इस दिन चंद्र-दर्शन अत्यंत शुभ माना गया है। व्रती चंद्रमा को जल अर्पित कर, मोदक और मिठाई दिखाकर फिर प्रसाद ग्रहण करते हैं और उपवास का समापन करते हैं।

अखुरथ संकष्टी चतुर्थी के व्रत का आध्यात्मिक महत्व गहन है। यह व्रत मनुष्य के भीतर धैर्य, विश्वास, सहनशीलता और दृढ़ संकल्प का बीज बोता है। उपवास के माध्यम से शरीर हल्का रहता है, मन शांत होता है और आत्मा की शक्ति बढ़ती है। गणेश जी को विघ्नहर्ता कहा जाता है, इसलिए यह व्रत जीवन के हर क्षेत्र में बाधाओं को दूर करने में सहायक माना गया है चाहे वह स्वास्थ्य से जुड़ी हों, शिक्षा, व्यापार, संतान, गृहस्थी, नौकरी, मानसिक तनाव या किसी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा।

इस व्रत के पीछे वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है। उपवास, गहरी श्वास, मंत्र-जप और ध्यान मनुष्य की न्यूरोलॉजिकल गतिविधियों को संतुलित करते हैं। चंद्र-दर्शन से मन में शांति और हार्मोनल संतुलन उत्पन्न होता है। धार्मिक और आध्यात्मिक शक्ति के साथ-साथ यह व्रत जीवन में अनुशासन स्थापित करने वाला भी माना गया है।

सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो यह व्रत भारतीय समाज में महिला शक्ति, परिवार-केन्द्रित संस्कृति और सामाजिक मूल्यों को मजबूत करता है। व्रत में सामूहिक पूजा, कथा, भजन और प्रसाद वितरण सामाजिक एकता को बढ़ाता है। घर में गणेश जी का पूजन वातावरण को सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है।

पुराणों में कहा गया है कि जिसने भी अखुरथ संकष्टी चतुर्थी का व्रत श्रद्धापूर्वक किया, उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। गणेश जी उसे ज्ञान, धन, बुद्धि, यश, समृद्धि और संतोष प्रदान करते हैं।

अखुरथ संकष्टी चतुर्थी की कथा में एक प्रमुख प्रसंग आता है—राजा हरिश्चंद्र के वंशज सत्यव्रत का। सत्यव्रत पर कई प्रकार के संकट आ पड़े थे, और एक महर्षि ने उन्हें इस व्रत का पालन करने की सलाह दी। सत्यव्रत ने पूरी श्रद्धा से व्रत किया, कथा सुनी और चंद्र-दर्शन कर उपवास समाप्त किया। परिणामस्वरूप उनके सभी संकट दूर हुए, राज्य की शुभता लौट आई और उनके जीवन में नया प्रकाश आया। इसी कथा से प्रेरणा लेकर भक्त इस व्रत का पालन करते हैं।

एक अन्य कथा में वर्णन आता है कि भद्रकाली नामक एक राक्षसी से पृथ्वी को मुक्ति दिलाने के लिए देवताओं ने गणेश जी का आह्वान किया। गणेश जी ने अखुरथ रूप धारण कर राक्षसी के आतंक का अंत किया। इसी विजय के प्रतीक रूप में यह व्रत मनाया जाता है।

आज के समय में यह व्रत अधिक लोकप्रिय हुआ है। लोग इसे केवल धार्मिक कारणों से ही नहीं, बल्कि मानसिक शांति, आत्मविश्वास, सकारात्मक ऊर्जा और पारिवारिक सुख-समृद्धि के लिए भी करते हैं। गणेश जी का प्रतीक ही बुद्धि, सफलता और शुभारंभ का है, इसलिए संकष्टी चतुर्थी व्रत जीवन में नए अवसरों का मार्ग खोलने वाला माना जाता है।

व्रत के दौरान भक्त ‘ॐ गं गणपतये नमः’, ‘गणेश गायत्री मंत्र’, ‘वक्रतुंड महाकाय’ और ‘संकटनाशन गणेश स्तोत्र’ का जप करते हैं। इन मंत्रों का प्रभाव मन और वातावरण दोनों को शुद्ध करता है।

निष्कर्षतः, अखुरथ संकष्टी चतुर्थी व्रत एक ऐसा आध्यात्मिक पर्व है जो व्यक्ति को भक्ति, अनुशासन, संतोष, संयम, शक्ति और सकारात्मकता प्रदान करता है। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक जीवन-दर्शन है जो बताता है कि संकट जीवन का हिस्सा हैं, परंतु भक्तिगुण, धैर्य, सदाचार और संकल्प से उन्हें पार किया जा सकता है। गणेश जी के इस दिव्य रूप की कृपा से भक्त का जीवन सुख, समृद्धि, शांति और आनंद से भर जाता है।


Saturday, December 6, 2025

डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर प्रस्तावना एक युगपुरुष का आविर्भाव भारतीय इतिहास की विराट गाथा


डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर 

प्रस्तावना एक युगपुरुष का आविर्भाव

भारतीय इतिहास की विराट गाथा में कुछ नाम ऐसे अंकित हैं जो केवल एक कालखंड के नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी दिशा-सूचक बन जाते हैं। इनमें डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर का नाम सर्वोच्च सम्मान के साथ उच्चारित किया जाता है। वे केवल संविधान निर्माता नहीं, केवल समाज सुधारक नहीं, केवल अर्थशास्त्री, विधिवेत्ता या चिंतक नहीं वे एक सम्पूर्ण युग थे। उनके जीवन का प्रत्येक क्षण संघर्ष, साधना और संकल्प से भरा था। जिस मिट्टी ने उन्हें जन्म दिया, उस मिट्टी में सदियों की पीड़ा, अपमान और शोषण के निशान थे, और अम्बेडकर ने उन सभी निशानों से उभरकर एक ऐसे समाज का स्वप्न रचा जिसमें मनुष्य का मूल्य उसकी जाति नहीं, उसकी मानवता हो।

अम्बेडकर का जीवन हमें यह भी सिखाता है कि संघर्ष का अर्थ केवल आँसू नहीं होता संघर्ष वह लौ है जो भीतर की शक्तियों को प्रज्वलित करती है। और जब वही लौ मानवता की सेवा में रूपांतरित होती है, तो वह इतिहास के अंधकार को उजाले में बदल देती है।

बाल्यकाल पीड़ा की पहली आहट

भीमराव का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महाराष्ट्र के महू (अब डॉ. अम्बेडकर नगर) में हुआ। उनका प्रारंभिक जीवन एक ऐसे समाज में बीता जहाँ जन्म ही मनुष्य की नियति तय कर देता था। जिस जाति व्यवस्था ने लाखों लोगों को सदियों तक किनारे पर खड़ा रखा, उसी व्यवस्था ने बालक भीमराव को भी छुआ। किंतु इन अपमानों ने उनके भीतर विद्रोह की धधकती चिंगारी को और प्रखर किया।

अपने स्कूल में वे प्रतिभाशाली थे, परंतु शिक्षकों का व्यवहार उन्हें बार-बार यह स्मरण कराता था कि वे समाज के "नीच" माने जाने वाले वर्ग से आते हैं। पानी का घड़ा छूने की मनाही, कक्षा में अलग बैठाया जाना, राहों में उपेक्षा की दृष्टि ये सब बालक भीमराव के कोमल मन पर गहरे घाव छोड़ते गए। परन्तु वे घाव ही उनके व्यक्तित्व की सबसे मजबूत नींव बने।

उनके भीतर एक प्रश्न बार-बार उठता
“क्या मनुष्य जन्म से छोटा हो सकता है? यदि नहीं, तो यह अन्याय क्यों?”

इन्हीं प्रश्नों ने उन्हें वह विचारक बनने की दिशा में अग्रसर किया जिसने आगे चलकर भारत को नई चेतना दी।

शिक्षा संकल्प की विराट उड़ान

अम्बेडकर का जीवन बताता है कि शिक्षा केवल पुस्तक तक सीमित नहीं होती वह मनुष्य की आत्मा को जागृत करती है। अत्यंत गरीबी, उपेक्षा और सामाजिक बंधनों के बावजूद उन्होंने शिक्षा को ही अपने जीवन का शस्त्र बनाया।

1913 में कोलंबिया विश्वविद्यालय पहुँचना उनके जीवन का महान मोड़ साबित हुआ। वहाँ के स्वतंत्र वातावरण, विश्व-स्तरीय विचारकों और बौद्धिक स्वतंत्रता ने उनके भीतर नए आयाम खोले। उन्होंने समाज, अर्थशास्त्र, राजनीति, मानवाधिकार व अंतरराष्ट्रीय न्याय इन सभी विषयों को गहराई से समझा।
उनकी प्रतिभा को देखकर कोलंबिया विश्वविद्यालय के अध्यक्ष निकोलस मरे बटलर ने कहा था
"यह युवक किसी दिन संसार में बड़ा योगदान देगा।"

कोलंबिया में उन्होंने सीखा कि समाज केवल कानूनों से नहीं बदलता, विचारों से बदलता है।
लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अध्ययन के दौरान उनके आर्थिक विचारों ने एक नया रूप लिया वे भारतीय समाज की जड़ता को आर्थिक विषमता से जोड़ते गए। उनके शोध प्रबंधों ने बाद में भारत की आर्थिक नीतियों को ठोस दिशा दी।

सामाजिक संघर्ष का आरंभ

शिक्षा पूरी कर India लौटते ही उन्हें समाज की कठोर वास्तविकताओं ने पुनः घेर लिया। लेकिन अब वे अकेले बालक भीमराव नहीं थे वे Dr. Ambedkar थे, एक प्रशिक्षित विद्वान, एक तेज़स्वी वकील, और उससे भी बढ़कर दलित समाज की आशा का सूर्योदय।

उन्होंने देखा कि वही समाज जो अपनी गौरवमयी सभ्यता का गुणगान करता है, उसी समाज में करोड़ों लोग अब भी अमानवीय जीवन जीने को मजबूर हैं। जलाशयों तक उनका अधिकार नहीं, मंदिरों में प्रवेश की मनाही, सड़कें अलग, कुएँ अलग, बस्तियाँ अलग।

डॉ. अम्बेडकर ने इन दीवारों को चुनौती देने का निर्णय लिया।

चावदार तालाब सत्याग्रह (1927)

यह केवल पानी पीने का आंदोलन नहीं था यह मानवाधिकारों की पुनर्प्राप्ति का युद्ध था।
अम्बेडकर के नेतृत्व में हजारों दलितों ने तालाब पर अधिकार जताया। यह वह क्षण था जब भारत की आत्मा पहली बार स्वयं से प्रश्न करती दिखाई दी।

महाड़ सम्मेलन

यह सम्मेलन सामाजिक चेतना का विस्फोट था। अम्बेडकर ने घोषणा की
“मैं उस धर्म को नहीं मान सकता जो मनुष्य को मनुष्य से नीचा दिखाए।”

उनके शब्द केवल शब्द नहीं थे वे एक असहमत समाज के लिए बिजली की गर्जना थे।

मनुस्मृति दहन विद्रोह की प्रतीक ज्योति

1927 में मनुस्मृति दहन एक ऐतिहासिक घटना थी। यह किसी पुस्तक का दहन नहीं था यह उस विचारधारा का दहन था जिसने मनुष्य को जन्म के आधार पर बांट दिया था।
अम्बेडकर ने यह साफ कर दिया कि
“यदि समाज को बदलना है, तो पहले उन विचारों को बदलना होगा जो अन्याय को वैधता देते हैं।”

यह घटना भारतीय सामाजिक नवजागरण का महत्वपूर्ण अध्याय बनी।

राजनीतिक संघर्ष समानता की लड़ाई संसद तक

अम्बेडकर मानते थे कि बिना राजनीतिक सहभागिता के कोई समाज अपने अधिकार नहीं प्राप्त कर सकता।
साइमन कमीशन, पूना पैक्ट, गोलमेज सम्मेलन इन सबमें उनकी भूमिका निर्णायक रही।

गोलमेज सम्मेलन

यहाँ अम्बेडकर ने ब्रिटिश सरकार और भारतीय नेताओं दोनों के सामने दलित समाज की वास्तविक समस्याओं को उकेरकर रखा।
उन्होंने कहा
“हम भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के विरोधी नहीं हैं, हम केवल यह चाहते हैं कि स्वतंत्र भारत में हम दास न बना दिए जाएँ।”

उनके शब्दों में जो स्पष्टता थी, वह उनके गहन अनुभवों की देन थी।

भारतीय संविधान और अम्बेडकर आधुनिक भारत का वास्तुकार

1947 में भारत स्वतंत्र हुआ। नए राष्ट्र को ऐसी नींव की आवश्यकता थी जिसमें न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्श हों।
अम्बेडकर संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष बनाए गए और यही वह क्षण था जिसने उन्हें इतिहास के शिखर पर स्थापित कर दिया।

उन्होंने ऐसा संविधान निर्मित किया जिसमें

  • सामाजिक न्याय सर्वोपरि था,
  • अस्पृश्यता का उन्मूलन मौलिक अधिकार बना,
  • कमजोर वर्गों के लिए विशेष संरक्षण,
  • महिला अधिकारों का विस्तार,
  • विधि के समक्ष समानता,
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं की सुरक्षा।

संविधान के अंतिम भाषण में कहा गया उनका प्रसिद्ध वाक्य “हम राजनीतिक लोकतंत्र तो स्थापित कर रहे हैं, पर यदि हमने सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को भी स्थापित नहीं किया, तो यह लोकतंत्र टिक नहीं सकेगा।”

इन शब्दों में उस भविष्य की चेतावनी छिपी थी जिसे अम्बेडकर स्पष्ट रूप से देख रहे थे।

बौद्ध धर्म की ओर यात्रा आत्मसम्मान की पुनर्प्राप्ति

अन्तिम वर्षों में उन्होंने बौद्ध धर्म में दीक्षा ली।
यह केवल एक धार्मिक परिवर्तन नहीं था यह उनके आत्मसम्मान और मानवता के आदर्शों का पुनर्जन्म था।
उन्होंने कहा
“मैं हिन्दू धर्म में इसलिए पैदा हुआ, क्योंकि यह मेरे नियंत्रण में नहीं था, पर मैं हिन्दू के रूप में मरूँगा नहीं यह मेरे नियंत्रण में है।”

1956 का उनका नागपुर दीक्षा समारोह लाखों लोगों के जीवन में नई दिशा लेकर आया।

उपसंहार अम्बेडकर की अमरता

अम्बेडकर 6 दिसंबर 1956 को इस संसार से विदा हो गए, पर वे वास्तव में कभी गए ही नहीं।
वे आज भी भारत के संविधान में बसते हैं,
दलित समाज की आकांक्षाओं में बसते हैं,
श्रमिकों की मांगों में बसते हैं,
महिलाओं की प्रगति में बसते हैं,
और आधुनिक भारत की आत्मा में बसते हैं।

उनका जीवन इस सत्य का प्रमाण है कि
“एक व्यक्ति दुनिया बदल सकता है, यदि उसके भीतर सत्य, साहस और संकल्प की शक्ति हो।”

संघर्ष, चेतना और परिवर्तन की प्रज्वलित यात्रा

एकात्मता की खोज विचारों का विस्तार

अम्बेडकर के भीतर लगातार यह जिज्ञासा जीवित थी कि समाज किन कारणों से टूटता है, और किन कारणों से जुड़ता है। जाति व्यवस्था के अनुभव ने उन्हें यह सिखाया था कि कोई भी समाज तभी टिकाऊ होता है जब उसमें समानता और बंधुत्व की भावना हो। कोलंबिया विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान उन्होंने समाजशास्त्र और मानव विज्ञान के सिद्धांतों को गहराई से आत्मसात किया। वे समझ गए थे कि भारतीय समाज की जड़ समस्या जाति व्यवस्था की वह स्थिरता है, जो मनुष्य को मनुष्य से अलग कर देती है।

उन्होंने लिखा
“जाति मनुष्य की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है। यह न केवल सामाजिक दुष्टता है, बल्कि मनुष्य की आत्मा को बाँध देने वाली जंजीर है।”

कोलंबिया में पढ़ते समय उन्होंने भारत के समाज पर सैकड़ों नोट्स तैयार किए। वे हर विचार को इतिहास, अर्थशास्त्र और राजनीति से जोड़कर देखते थे। उन्हें यह स्पष्ट हो गया था कि सामाजिक सुधार केवल भावनाओं से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किया जा सकता है।

इसी वैज्ञानिक चेतना ने उनके विचारों को कठोर बनाया कठोर इसलिए, क्योंकि अन्याय के विरुद्ध नरमी न्याय की हत्या होती है।

मातृभूमि की पुकार और यथार्थ का तूफ़ान

अम्बेडकर जब विदेश से लौटकर भारत पहुँचे, तो उनका स्वागत उस समाज ने नहीं किया जिसे वे अपने ज्ञान और सेवा से उठाना चाहते थे।
बल्कि उनका स्वागत किया

  • भेदभाव ने,
  • सामाजिक उपेक्षा ने,
  • कठोर यथार्थ ने,
  • और उन आँखों ने जो आज भी जाति के चश्मे से दुनिया को देखती थीं।

डॉ. अम्बेडकर बंबई में वकालत करने लगे। वहाँ भी उन्हें उन सामाजिक दीवारों का सामना करना पड़ा जिनसे लड़ने का संकल्प वे वर्षों से मजबूत कर रहे थे। उनकी बहुमुखी प्रतिभा और गहन ज्ञान के बावजूद, समाज का बड़ा वर्ग उन्हें समानता से देखने को तैयार नहीं था।

परन्तु वे टूटे नहीं।
उन्होंने समझ लिया कि यह संघर्ष केवल उनका नहीं—यह करोड़ों दलितों का संघर्ष है, जिनकी आवाज़ को कोई सुनने को तैयार नहीं।

वे अक्सर कहते
“मेरे जीवन का संघर्ष व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामूहिक मुक्ति का संघर्ष है।”

बहिष्कृत हितकारिणी सभा संगठित संघर्ष की भूमि

1924 में डॉ. अम्बेडकर ने बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की। यह केवल एक संगठन नहीं था यह दलित समुदाय की चेतना का पहला सुव्यवस्थित स्वर था।
सभा का उद्देश्य था

  • शिक्षा का प्रसार
  • सामाजिक उठान
  • राजनीतिक जागरूकता
  • अधिकारों के लिए संगठित संघर्ष

अम्बेडकर ने पहली बार यह समझाया कि सामाजिक परिवर्तन केवल नैतिक अपील से नहीं आता इसके लिए राजनीतिक शक्ति और संगठन आवश्यक है।

वे यह भी जानते थे कि सदियों से दबाया गया समुदाय केवल भावनाओं से नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और अधिकारों के बोध से उठ सकता है। इसलिए उन्होंने दलितों में यह भाव जगाया कि

“जो लोग स्वयं अपने पैरों पर खड़े होने की क्षमता नहीं रखते, उन्हें कोई भी स्वतंत्रता नहीं दिला सकता।”

सभा के माध्यम से अम्बेडकर ने समुदाय को बताया कि शिक्षा उनका पहला हथियार है। वे कहते

“शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो।”

ये तीन शब्द आगे चलकर पूरे दलित आंदोलन का आधार बन गए।

महाड़ सत्याग्रह आत्मसम्मान की पहली गर्जना

1927 का महाड़ सत्याग्रह भारतीय सामाजिक इतिहास का एक क्रांतिकारी अध्याय है।
यह केवल पानी पीने का अधिकार नहीं था यह प्रतीक था उस समानता की आकांक्षा का जिसे सदियों तक दबा दिया गया था।

महाड़ का चावदार तालाब सरकारी संपत्ति था, पर सामाजिक नियमों के अनुसार दलितों को पानी छूने की भी मनाही थी।
डॉ. अम्बेडकर हजारों साथियों के साथ तालाब तक पहुँचे।
जब उन्होंने पानी पिया, तो यह केवल जल ग्रहण नहीं था यह गुलामी को अस्वीकार करने की घोषणा थी।

कुछ घंटों में ही ऊँची जातियों ने तालाब का पानी ‘शुद्ध’ करने के लिए दूध और गोबर के मिश्रण से इसे ‘पवित्र’ बनाने का प्रयास किया।
अम्बेडकर ने देखा कि यह केवल धार्मिक रीति नहीं थी यह मनुष्य की समानता को नकारने का प्रतीक था।

उन्होंने कहा
“यदि पानी छूना भी अपराध समझा जाता है, तो यह समाज सुधार की नहीं, समाज पुनर्निर्माण की आवश्यकता को दर्शाता है।”

महाड़ सत्याग्रह दलितों की जागृति का विराट क्षण था यह वह पल था जब इतिहास ने पहली बार दलितों की सामूहिक चेतना की गूँज सुनी।

मनुस्मृति दहन अन्याय के ग्रंथ का प्रतिरोध

महाड़ सम्मेलन के दूसरे दिन मनुस्मृति दहन हुआ। यह अत्यंत साहसिक कदम था, क्योंकि मनुस्मृति सदियों से हिंदू सामाजिक व्यवस्था का आधार मानी जाती रही थी।

अम्बेडकर ने कहा

“यदि कोई ग्रंथ मनुष्य को जन्म से नीचा सिद्ध करता है, तो वह ग्रंथ सद्ग्रंथ नहीं हो सकता।”

उन्होंने यह स्पष्ट किया कि मनुस्मृति दहन किसी धर्म के विरुद्ध कदम नहीं, बल्कि उन विचारों के विरुद्ध संघर्ष है जो मानवता को विभाजित करते हैं।

उनकी यह घोषणा समाज में बिजली की तरह फैल गई। समर्थक भी थे, विरोधी भी।
परंतु इतिहास जानता है कि परिवर्तन हमेशा साहसी कदमों से शुरू होता है।

मनुस्मृति दहन ने पूरे भारत में यह संदेश फैला दिया कि अब दलित समुदाय केवल दया का पात्र नहीं वह न्याय की माँग करने वाला समुदाय है।

राजनीतिक चेतना का उभार

डॉ. अम्बेडकर ने देखा कि यदि दलित समाज राजनीतिक रूप से शक्तिशाली नहीं बनेगा, तो उसके अधिकार केवल कागज पर रह जाएँगे।
उन्होंने दलितों को राजनीति में सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया।

1930 में गोलमेज सम्मेलन में भाग लेते हुए उन्होंने दलित समस्याओं को वैश्विक मंच तक पहुँचा दिया।
अम्बेडकर ने कहा

“हम राष्ट्रीयता के विरोधी नहीं, परंतु ऐसी राष्ट्रीयता के विरोधी हैं जो हमें नागरिक अधिकारों से वंचित कर दे।”

उनके विचार कठोर और स्पष्ट थे।
वे समझते थे कि स्वतंत्र भारत तभी सफल हो सकता है जब हर नागरिक को समान अवसर मिले।

पूना पैक्ट संघर्ष और समझौते का चौराहा

1932 में ब्रिटेन द्वारा दलितों के लिए अलग निर्वाचन की घोषणा हुई।
महात्मा गांधी ने इसका विरोध किया और अनशन शुरू कर दिया।

अम्बेडकर जानते थे कि अलग निर्वाचन दलित समाज के राजनीतिक अधिकारों के लिए आवश्यक था, पर वे यह भी जानते थे कि गांधी की मृत्यु पूरे राष्ट्र को अशांत कर देगी।

समझौते की आवश्यकता थी, पर समझौता इन अधिकारों का दमन न बने यह भी उतना ही आवश्यक था।

पूना पैक्ट में

  • अलग निर्वाचन हटा दिया गया
  • पर दलितों को आरक्षण, विशेष प्रतिनिधित्व और राजनीतिक संरक्षण मिला

यह अम्बेडकर की दूरदृष्टि का नमूना था।
उन्होंने व्यक्तिगत भावनाओं पर सामूहिक अधिकारों को प्राथमिकता दी।

भारतीय समाज का गहन विश्लेषण

अम्बेडकर केवल विद्रोही नहीं थे वे अत्यंत सूक्ष्म विश्लेषक भी थे।
उनकी पुस्तकों Annihilation of Caste, The Problem of the Rupee, Who Were the Shudras? इत्यादि ने भारतीय सामाजिक संरचना को नए दृष्टिकोण से समझाया।

वे मानते थे कि

  • जाति व्यवस्था भारत की आर्थिक प्रगति को रोकती है
  • जाति समाज को खंडित करती है
  • जाति व्यक्ति की क्षमताओं को नष्ट करती है

वे कहते

“जाति केवल सामाजिक विभाजन नहीं है; यह मनुष्य की चेतना का विभाजन है।”

उनका यह विश्लेषण आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था।

परिवर्तन की राजनीति, ज्ञान की क्रांति और समाज-निर्माण

सामाजिक क्रांति का बीज जाति के विरुद्ध वैज्ञानिक दृष्टिकोण

डॉ. अम्बेडकर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने जाति प्रथा को भावनात्मक या केवल धार्मिक परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा। उन्होंने इसे एक सामाजिक संरचना, एक मानसिक प्रवृत्ति और एक आर्थिक व्यवस्था के रूप में समझा।

वे बार-बार कहते थे

“जाति केवल मनुष्य की गरिमा पर आक्रमण नहीं है, यह उसकी प्रतिभा, श्रम और अधिकारों पर भी कुठाराघात है।”

अम्बेडकर ने अपने विश्लेषण में यह सिद्ध किया कि जाति प्रथा भारत को स्थिर बनाती है, न कि गतिशील।
उनके अनुसार

  • जहाँ जाति है, वहाँ स्वतंत्रता नहीं
  • जहाँ जाति है, वहाँ प्रतिस्पर्धा नहीं
  • जहाँ जाति है, वहाँ सामाजिक गतिशीलता नहीं
  • जहाँ जाति है, वहाँ समान अवसर नहीं

उनका यह विचार आज भी उतना ही वैज्ञानिक और तथ्यपूर्ण है जितना उस समय था।
उनकी लेखनी भावनाओं में नहीं बहती; वह तर्क की भूमि पर खड़ी होती है।

इसलिए वे कहते
“सत्य को स्वीकारने में संकोच नहीं होना चाहिए। यदि परंपरा गलत है, तो उसे तोड़ना ही होगा।”

आंदोलन की नई धारा शिक्षा, समानता और आत्मचेतना

अम्बेडकर भली-भांति जानते थे कि यदि दलित समाज को उठाना है, तो उसका पहला आधार शिक्षा ही हो सकती है।
वे मानते थे कि

“ज्ञान मनुष्य की मुक्ति का द्वार है।”

उन्होंने गांव-गांव, शहर-शहर, समुदायों के भीतर यह चेतना जगाई कि शिक्षा केवल नौकरी पाने का माध्यम नहीं; शिक्षा वह शक्ति है जो मनुष्य को प्रश्न पूछना सिखाती है, और जब मनुष्य प्रश्न पूछने लगता है, तब उसकी बेड़ियाँ टूटने लगती हैं।

उन्होंने दलित समुदाय को बताया कि

  • अधिकार माँगने से नहीं, योग्य बनने से मिलते हैं
  • आत्मसम्मान बिना संघर्ष के नहीं मिलता
  • और ज्ञान के बिना कोई संघर्ष सफल नहीं होता

अम्बेडकर के प्रयासों से हजारों विद्यार्थी प्रेरित हुए।
कई विद्यालय, छात्रावास और संस्थान खोले गए जहाँ दलित बच्चों को पढ़ने का अवसर मिला।

अम्बेडकर के शिक्षा आंदोलन ने भारत की सामाजिक चेतना में क्रांति ला दी।

आर्थिक दृष्टिकोण भारत की आत्मा का गहन अध्ययन

अम्बेडकर अर्थशास्त्र के गहन विद्वान थे। कोलंबिया विश्वविद्यालय से लेकर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स तक उन्होंने विश्व के श्रेष्ठतम अर्थशास्त्रियों के साथ अध्ययन किया।

उनकी पुस्तक The Problem of the Rupee आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास की महत्वपूर्ण पुस्तक मानी जाती है।

उन्होंने सिद्ध किया कि

  • भारत की निर्धनता केवल प्राकृतिक कारणों से नहीं
  • न ही यह केवल अंग्रेज़ी शासन का परिणाम है
  • बल्कि भारत की आर्थिक संरचना में ही कई कमजोरियाँ हैं

उन्होंने यह भी कहा कि जाति व्यवस्था भारत की आर्थिक प्रगति को रोकती है।
क्योंकि

  • जाति के कारण श्रम का मूल्यांकन नहीं होता
  • प्रतिभा का उपयोग नहीं हो पाता
  • श्रमिक वर्ग को अवसर नहीं मिलता
  • और उत्पादन प्रणाली जड़ हो जाती है

उनके आर्थिक विचार आज के सामाजिक-आर्थिक शोध का आधार माने जाते हैं।

श्रम और उद्योग में सुधार औद्योगिक कार्यपालिका का नेतृत्व

अम्बेडकर केवल समाज सुधारक नहीं थे वे भारत के सबसे आधुनिक विचारधारा वाले श्रम नीति निर्माता भी थे।

जब वे ब्रिटिश भारत में श्रम मंत्री नियुक्त हुए, तब उन्होंने निम्नलिखित ऐतिहासिक कानून और सुधार लागू किए

  • आठ घंटे कार्य-दिवस
  • सवेतन अवकाश
  • महिलाओं का रात्रिकालीन श्रम समाप्त
  • समान वेतन की अवधारणा
  • मजदूरों के लिए बीमा
  • भविष्य निधि (Provident Fund)
  • मजदूरों के रहने की सुविधाएँ
  • औद्योगिक अदालतों की स्थापना

आज भारत में जो श्रम अधिकार मूलभूत माने जाते हैं, उनमें से अधिकांश डॉ. अम्बेडकर के ही योगदान हैं।

उन्होंने प्रथम बार श्रमिकों को ‘मनुष्य’ मानकर, उनके श्रम को मानवीय गरिमा के अनुरूप दर्जा दिया।

उनका यह ऐतिहासिक कथन आज भी अमर है
“किसी राष्ट्र की उन्नति उसके श्रमिकों की स्थिति से निर्धारित होती है।”

महिलाएँ : समानता का विस्तृत आयाम

अम्बेडकर महिलाओं के अधिकारों के अग्रगामी विचारक थे।
उनका मानना था कि

  • कोई समाज तब तक सभ्य नहीं हो सकता जब तक उसमें महिलाओं को समान अधिकार न हों।
  • यदि महिलाएँ कमजोर हैं, तो समाज प्रगति नहीं कर सकता।

उन्होंने हिंदू कोड बिल के माध्यम से महिलाओं को संपत्ति, विवाह, उत्तराधिकार और तलाक में समान अधिकार देने का प्रयास किया।

यह एक अत्यंत क्रांतिकारी कदम था।
विरोध इतना बढ़ा कि बिल पारित नहीं हो पाया।

लेकिन अम्बेडकर ने राष्ट्र से कहा
“जब तक महिलाओं को समान अधिकार नहीं दिए जाते, मैं इस सरकार में नहीं रह सकता।”

और उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
इतिहास में ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं जहाँ कोई नेता सत्ता से ऊपर उठकर समाज के नैतिक सिद्धांतों की रक्षा करता है।

आज भारत में महिलाओं के जो अधिकार हैं, वे अम्बेडकर के संघर्ष का प्रत्यक्ष परिणाम हैं।

संविधान निर्माण राष्ट्र-निर्माण का युगांतकारी क्षण

1947 में भारत आज़ाद हुआ।
अब इस विशाल राष्ट्र को एक ऐसे संविधान की आवश्यकता थी जो

  • विविधताओं को एकता में बदल सके
  • समानता का आधार दे
  • न्याय का मार्ग प्रशस्त करे
  • और भविष्य के भारत की दिशा तय करे

संविधान सभा ने डॉ. अम्बेडकर को ड्राफ्टिंग कमिटी का अध्यक्ष नियुक्त किया।

अम्बेडकर ने अथक परिश्रम से

  • सामाजिक न्याय,
  • मौलिक अधिकार,
  • अल्पसंख्यक संरक्षण,
  • महिलाओं का अधिकार,
  • धर्म-स्वतंत्रता,
  • विधिक समानता,
  • राजनीतिक प्रतिनिधित्व

इन सभी को संविधान का आधार बनाया।

उन्होंने कहा

“राजनीतिक लोकतंत्र तभी टिकेगा, जब सामाजिक लोकतंत्र भी होगा।”

उनके विचार इतने स्पष्ट और आधुनिक थे कि भारत का संविधान दुनिया के सबसे प्रगतिशील संविधानों में गिना जाता है।

अंतिम संघर्ष धर्मांतरण की ओर यात्रा

डॉ. अम्बेडकर यह समझ चुके थे कि जाति प्रथा केवल सामाजिक नहीं, धार्मिक आधार पर भी जड़ें जमाए हुए है।
उनके सामने एक बड़ा प्रश्न था

“यदि एक धर्म मनुष्य को समानता नहीं दे सकता, तो क्या मनुष्य को उस धर्म में रहना चाहिए?”

लंबे चिंतन, अध्ययन और शोध के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म को चुना क्योंकि यह

  • समानता पर आधारित है
  • तर्क पर आधारित है
  • मानवता को सर्वोच्च मानता है

14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में उन्होंने और उनके लाखों अनुयायियों ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया।
यह केवल धार्मिक परिवर्तन नहीं था यह आत्मसम्मान का पुनर्जन्म था।

उन्होंने कहा

“मैंने अपना धर्म बदला है, पर अपने देश को नहीं।”

अम्बेडकर की विरासत शाश्वत प्रेरणा

अम्बेडकर 6 दिसंबर 1956 को संसार से विदा हो गए।
परंतु वे केवल एक मनुष्य नहीं थे वे एक विचार थे, और विचार कभी मरते नहीं।

आज

  • संविधान की हर पंक्ति में,
  • न्यायालय के हर निर्णय में,
  • दलित आंदोलन की हर पुकार में,
  • महिलाओं के हर अधिकार में,
  • श्रमिकों की हर मांग में,

अम्बेडकर जीवित हैं।

उनके शब्द हर पीढ़ी को यह संदेश देते हैं
“मनुष्य बनो, केवल जन्म का परिणाम मत बनो।”

डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर एक विस्तृत गद्यात्मक जीवनचित्र

संवैधानिक दृष्टि, मानवीय मूल्य और बौद्ध पुनर्जागरण

जनतंत्र की नई परिभाषा केवल शासन नहीं, बल्कि समाज की आत्मा

डॉ. अम्बेडकर के लिए लोकतंत्र केवल चुनावों की प्रक्रिया नहीं था।
वे लोकतंत्र को एक सामाजिक मूल्य, एक जीवन-दर्शन और एक नैतिक व्यवस्था मानते थे।

उनके अनुसार

  • जहाँ समानता नहीं, वहाँ लोकतंत्र नहीं।
  • जहाँ जाति है, वहाँ लोकतंत्र नहीं।
  • जहाँ भय और भेदभाव है, वहाँ लोकतंत्र नहीं।

उन्होंने स्पष्ट लिखा
“लोकतंत्र का असली मूल्य इस बात में है कि वह समाज को नैतिक बनाता है।”

उनका यह विचार आधुनिक भारत के लिए आज भी मार्गदर्शक है।
वे मानते थे कि लोकतंत्र तभी फल-फूल सकता है जब समाज में बंधुत्व की भावना हो।
बंधुत्व उनका सबसे प्रिय सिद्धांत था, क्योंकि यह मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है।

बंधुत्व भारतीय समाज के लिए नैतिक औषधि

अम्बेडकर का मानना था कि बंधुत्व वह शक्ति है जो समाज को विखंडन से बचाती है।
उनके अनुसार

  • न्याय व्यवस्था केवल कानूनों से नहीं, मानवीय संबंधों से टिकी रहती है।
  • समानता केवल राजनीतिक सिद्धांत नहीं, सामाजिक व्यवहार है।
  • स्वतंत्रता तभी सार्थक है जब समाज उसका उपयोग करने के योग्य हो।

इसलिए उन्होंने कहा
“स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व ये एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं।”

बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता स्वार्थ में बदल जाती है,
समानता ईर्ष्या में बदल जाती है,
और न्याय गणित में बदल जाता है।

अम्बेडकर का यह विचार भारतीय समाज की आत्मा में नई रोशनी की तरह उतरा।

संविधान बुद्धि, तर्क और करुणा का संगम

संविधान निर्माण उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक है।
उन्होंने न केवल कानूनों को संकलित किया, बल्कि उन कानूनों के पीछे छिपे मानवीय मूल्य भी निर्धारित किए।

संविधान के प्रमुख स्तंभ

  1. न्याय  सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक
  2. स्वतंत्रता  विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना
  3. समानता  अवसरों की समानता और विधि के समक्ष समानता
  4. बंधुत्व  राष्ट्र की एकता और अखंडता

ये मूल्य केवल शब्द नहीं थे ये अम्बेडकर के जीवन का सार थे।

अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा
“हमने जो संविधान रचा है, वह कितना भी अच्छा हो, यदि उसे चलाने वाले लोग अच्छे नहीं होंगे, तो यह भी बुरा साबित होगा।”

उनकी दूरदृष्टि अद्भुत थी।
वे जानते थे कि भविष्य में भी भारत को लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए निरंतर संघर्ष करना होगा।

धर्म और सामाजिक विज्ञान का संगम बौद्ध दर्शन की ओर आकर्षण

अम्बेडकर बचपन से ही धार्मिक मान्यताओं पर प्रश्न करते थे।
वे किसी भी विचार को केवल इसलिए स्वीकार नहीं करते थे कि वह परंपरा का हिस्सा है।
उनके लिए धर्म का उद्देश्य मनुष्य को ऊँचा उठाना था न कि उसे बँधनों में बाँध देना।

उन्होंने लिखा
“धर्म वह मार्ग है जो मनुष्य को उसके कर्तव्यों का बोध कराए।”

बौद्ध धर्म में उन्हें

  • तर्क मिला
  • समानता मिली
  • करुणा मिली
  • विज्ञान मिला
  • मानवता मिली

बुद्ध के अष्टांग मार्ग ने उन्हें एक ऐसा दर्शन दिया जिसमें न उत्पीड़न था, न विभाजन।
उनके विचार में, बौद्ध धर्म मानव गरिमा और सामाजिक न्याय का सबसे शुद्ध स्वरूप था।

नागपुर दीक्षा समारोह आत्मसम्मान का महासागर

14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में हुआ दीक्षा समारोह मानव इतिहास की सबसे बड़ी आध्यात्मिक घटनाओं में से एक है।
लाखों लोग अम्बेडकर के साथ बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए।

अम्बेडकर ने कहा
“आज मैं उस परंपरा को त्याग रहा हूँ जिसने मुझे मनुष्य नहीं बनने दिया।”

उनके अनुयायी घंटों तक रोते रहे, क्योंकि वे जानते थे कि यह केवल धर्म परिवर्तन नहीं अस्मिता का उदय था।

उन्होंने 22 प्रतिज्ञाओं को अपना मार्गदर्शक बनाया, जिनमें

  • अंधविश्वास का त्याग
  • समता का पालन
  • करुणा का विकास
  • विज्ञान का सम्मान

शामिल था।

बौद्ध धर्म ग्रहण करते समय अम्बेडकर शांत थे ऐसे शांत जैसे कोई मनुष्य अपने बोझों को रखकर नए जीवन में प्रवेश करता है।

अंतिम रात्रि अपूर्ण स्वप्न, अनंत प्रेरणा

2 दिसंबर 1956 की रात डॉ. अम्बेडकर अपने कमरे में बैठे “The Buddha and His Dhamma” की अंतिम पंक्तियाँ लिख रहे थे।
वे जानते थे कि उनका जीवन अपनी अंतिम दहलीज़ पर है, लेकिन उनका लेखन यह दिखाता था कि उनके भीतर अभी भी कितना कार्य शेष था।

6 दिसंबर 1956 की सुबह जब उनका पार्थिव शरीर मिला, तो पूरा देश स्तब्ध रह गया।
न कोई विलाप, न कोई शिकायत केवल एक मौन।
वह मौन जो किसी महान आत्मा के प्रस्थान के बाद उत्पन्न होता है।

उनके शरीर ने साथ छोड़ा,
पर उनके विचार अमर हो गए।

अम्बेडकर का प्रभाव केवल दलितों तक सीमित नहीं

आज अम्बेडकर को केवल दलितों के नेता के रूप में देखना उनकी महत्ता को कम कर देना है।
वे

  • मजदूरों के नेता थे
  • महिलाओं के अधिकारों के निर्माता थे
  • भारतीय लोकतंत्र के स्तंभ थे
  • भारतीय अर्थव्यवस्था के शिल्पकार थे
  • मानवाधिकारों के प्रहरी थे
  • आधुनिक विचारों के आदर्श थे

उनकी दृष्टि भारतीय समाज को जड़ों से बदलने की थी।
उन्होंने किसी एक वर्ग के लिए नहीं, पूरे मानव समाज के लिए संघर्ष किया।

आज

  • संविधान में
  • सामाजिक आंदोलनों में
  • महिलाओं के अधिकारों में
  • शिक्षा की नीतियों में
  • श्रमिक कानूनों में
  • न्यायालय के निर्णयों में

अम्बेडकर के विचार जीवित हैं।

अम्बेडकर एक विचारधारा जो समय से परे है

अम्बेडकर कोई ऐतिहासिक चरित्र नहीं वे एक चेतना हैं।
एक ऐसी चेतना जो हर उस मनुष्य में जीवित रहती है जो अन्याय के खिलाफ उठ खड़ा होता है।

उनके विचार हमें यह सिखाते हैं

  • मनुष्य बराबर पैदा होता है
  • अधिकार जन्मसिद्ध नहीं, अर्जित किए जाते हैं
  • ज्ञान मनुष्य को स्वतंत्र बनाता है
  • संघर्ष जीवन की गरिमा है
  • समानता सभ्यता का आधार है

अम्बेडकर का जीवन बताता है कि

“कोई भी परिस्थिति इतनी कठोर नहीं होती कि मनुष्य उससे ऊपर न उठ सके।”

अमर विरासत, आधुनिक भारत और भविष्य की दिशा

अम्बेडकर और मानवाधिकार सीमाओं से परे एक दृष्टि

डॉ. अम्बेडकर भारतीय समाज पर ही नहीं, वैश्विक मानवाधिकार विमर्श पर भी गहरा प्रभाव छोड़ने वाले विचारक थे।
उनकी दृष्टि सीमाओं से परे थी वे मानवता को समग्रता में देखते थे।

उनके विचारों में कुछ मूलभूत बातें विशेष रूप से उभरती हैं

  1. मनुष्य की गरिमा सर्वोपरि है।
    कोई भी व्यवस्था धार्मिक, सामाजिक या राजनीतिक यदि मनुष्य की गरिमा को चोट पहुँचाती है, तो वह व्यवस्था अन्यायपूर्ण है।

  2. अधिकार भीख नहीं, मूलभूत मानव मूल्य हैं।
    वे बार-बार कहते
    “अधिकार माँगे नहीं जाते; उन्हें छीनना पड़ता है।”

  3. समानता का अर्थ अवसर की समानता है।
    समाज में समानता तब आएगी जब हर मनुष्य को अपनी पूरी क्षमता तक पहुँचने का अवसर मिले।

  4. मानवाधिकार का पहला आधार शिक्षा है।
    उन्होंने मानवाधिकारों को केवल राजनीतिक या कानूनी संदर्भ में नहीं, बल्कि बौद्धिक स्वतंत्रता के संदर्भ में भी रखा।

इस तरह अम्बेडकर का मानवाधिकार दर्शन केवल भारत के लिए नहीं पूरी दुनिया के लिए एक मार्गदर्शन है।

आधुनिक भारत का निर्माण और अम्बेडकर

आज के भारत में जो कुछ भी हमारे सामाजिक ढांचे का आधार है—उसकी जड़ें अम्बेडकर के विचारों में गहराई से समाहित हैं।
उन्होंने आधुनिक भारत को पाँच प्रमुख स्तंभ दिए

संवैधानिक संरक्षण

उन्होंने संविधान के माध्यम से सामाजिक न्याय को सर्वोच्च स्थान दिया।
उनके कारण भारत दुनिया का पहला ऐसा देश बना जहाँ

  • अस्पृश्यता अपराध है
  • समानता मौलिक अधिकार है
  • धर्म स्वतंत्रता है
  • अभिव्यक्ति स्वतंत्र है
  • नागरिक अधिकार अविछिन्न हैं

सामाजिक बराबरी

अम्बेडकर के संघर्षों ने भारत की सामाजिक संरचना को भीतर से हिलाया।
जो समाज सदियों से विभाजित था, उसमें पहली बार बराबरी का भाव जागा।

शिक्षा का प्रसार

आज दलित, पिछड़े, महिलाएँ और गरीब शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं यह परिवर्तन अम्बेडकर के वाक्य "शिक्षित बनो" की देन है।

आर्थिक सशक्तिकरण

श्रमिकों, कर्मचारियों और किसानों के लिए बने कानूनी प्रावधान अम्बेडकर के आर्थिक दृष्टिकोण पर आधारित हैं।

बौद्ध विचार का पुनर्जागरण

बौद्ध धर्म को पुनः जागृत कर उन्होंने भारत की सोच को तर्कसंगत, वैज्ञानिक और मानवीय दिशा दी।

जाति उन्मूलन अधूरा कार्य, मूक पुकार

अम्बेडकर का सबसे बड़ा लक्ष्य था जाति प्रथा का समाप्त होना
उन्होंने अपने जीवन की अंतिम साँस तक यह संघर्ष जारी रखा।

पर उन्होंने यह भी चेतावनी दी थी

“जाति केवल सामाजिक संस्था नहीं है; यह भारतीय मन की सांस्कृतिक आदत है। इसे तोड़ने में सदियाँ लगेंगी।”

आज भारत बदला है, परंतु पूरी तरह मुक्त नहीं हुआ।
डॉ. अम्बेडकर का यह कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है

“भारत में लोकतंत्र का असली परीक्षण यह है कि क्या समाज अपने भीतर की असमानताओं को मिटा सकता है।”

उनकी दृष्टि हमें याद दिलाती है कि समाज सुधार केवल कानूनों से नहीं, बल्कि मानसिकता में परिवर्तन से होता है।

वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अम्बेडकर

अम्बेडकर को केवल भारतीय संदर्भ में देखना उनकी महानता का अपमान है।
उनका विचार विश्व के मानवाधिकार इतिहास के महान विचारकों की श्रेणी में आता है।

  • अमेरिका में समानता संघर्ष
  • दक्षिण अफ्रीका में नस्लभेद विरोध
  • फ्रांस की स्वतंत्रता-समता का आंदोलन
  • जापान का सामाजिक पुनर्निर्माण

इन सबके समानांतर अम्बेडकर ने भी भारत में सामाजिक क्रांति चलाई।

वे एशिया में मानवाधिकार आंदोलन के सबसे बड़े स्तंभों में से एक माने जाते हैं।
उनकी सोच आधुनिकता, विज्ञान और करुणा तीनों का संगम है।

अंधविश्वास के विरुद्ध लड़ाई

अम्बेडकर का मानना था कि भारत अंधविश्वास, परंपरा-भक्ति और धर्म-शोषण के कारण पिछड़ा है।
इसलिए उन्होंने कहा

“जीवन का आधार तर्क होना चाहिए, न कि पवित्रता के नाम पर थोपी गई परंपराएँ।”

उन्होंने समाज को सिखाया कि

  • प्रश्न पूछना विद्रोह नहीं है
  • तर्क करना पाप नहीं है
  • सोच बदलना कमजोरी नहीं है

अम्बेडकर की दृष्टि ने भारतीय समाज के मन-मस्तिष्क को वैज्ञानिक दिशा दी।

बुद्ध और धम्म करुणा का मार्ग

अम्बेडकर बुद्ध के विचारों में आत्मा की शांति और समाज के उत्थान दोनों देखते थे।
उनके अनुसार बुद्ध ने

  • दुःख का निदान दिया
  • समानता की शिक्षा दी
  • तर्क का सहारा दिया
  • करुणा को आचरण बनाया

उन्होंने बुद्ध के धम्म को सामाजिक क्रांति का मार्ग माना।

उनकी पुस्तक “The Buddha and His Dhamma” आज भी बौद्ध दर्शन का आधुनिक, वैज्ञानिक और मानवीय प्रस्तुतीकरण है।

अम्बेडकर का अंतिम संदेश संघर्ष ही जीवन है

जीवन के अंतिम क्षणों में उन्होंने कहा था

“मैंने संघर्ष किया है, और जब तक मेरे लोगों को अन्याय से मुक्ति नहीं मिलती, मेरा संघर्ष जारी रहेगा मेरी मृत्यु के बाद भी।”

यह वाक्य केवल एक नेता का कथन नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी की प्रतिज्ञा है।
आज भी लाखों लोग इस प्रतिज्ञा को अपने जीवन का मार्ग बनाते हैं।

अम्बेडकर एक युग थे, युग रहेंगे

डॉ. भीमराव अम्बेडकर किसी एक काल के नहीं थे वे समय से परे एक चेतना हैं।
उनका जीवन मानव गरिमा, समानता और स्वतंत्रता का चरम उदाहरण है।

वे हमें यह सिखाते हैं

  • शिक्षा संघर्ष का पहला हथियार है
  • आत्मसम्मान मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है
  • अन्याय के सामने मौन रहना पाप है
  • समानता के बिना सभ्यता अधूरी है
  • और विचार ही मनुष्य को महान बनाते हैं

अम्बेडकर का जीवन इस सत्य का प्रमाण है कि

“एक अकेला मनुष्य, यदि उसके भीतर सत्य का साहस हो, तो पूरी दुनिया बदल सकता है।”

आज भी जब कोई विद्यार्थी गरीबी से लड़कर आगे बढ़ता है,
जब कोई स्त्री अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठाती है,
जब कोई मजदूर न्याय मांगता है,
जब कोई दलित अस्मिता के लिए संघर्ष करता है,
जब कोई युवा प्रश्न पूछता है
वहाँ अम्बेडकर उपस्थित होते हैं।

वे विचारों के रूप में जीवित हैं,
संघर्ष के रूप में जीवित हैं,
आशा के रूप में जीवित हैं,
और न्याय के मार्गदर्शक के रूप में जीवित हैं।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर  सरल भाषा में विस्तृत जीवनचित्र

जन्म और बचपन कठिन रास्ता, मजबूत इरादा

डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महू (मध्य प्रदेश) में हुआ।
वे ऐसे परिवार में पैदा हुए थे जिसे समाज “अछूत” समझता था।
बचपन में ही उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ा

  • स्कूल में अलग बैठाया जाता
  • पानी के बर्तन छूने नहीं दिए जाते
  • लोग उन्हें छूने से भी डरते

लेकिन भीमराव पढ़ाई में बहुत तेज थे।
उनका मन यह मानने को तैयार ही नहीं था कि कोई मनुष्य जन्म से छोटा हो सकता है।
बचपन की तकलीफों ने ही उनके अंदर अन्याय के विरुद्ध लड़ने की आग जलाई।

पढ़ाई का सफर ज्ञान ही सबसे बड़ी ताकत

भीमराव ने निश्चय कर लिया कि शिक्षा ही उनके जीवन को बदल सकती है।

उन्होंने बहुत मेहनत करके:

  • मेट्रिक पास की
  • कॉलेज में पढ़ाई जारी रखी
  • विदेश जाने का मौका मिला

अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में उन्होंने राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र जैसे विषयों का गहराई से अध्ययन किया।
इसके बाद वे लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स गए और वहाँ भी उच्च शिक्षा प्राप्त की।

विदेश की खुली सोच ने उनके विचारों को बहुत मजबूत बनाया।
उन्होंने समझा कि गरीबी, जाति और भेदभाव समाज को कमजोर बनाते हैं।

भारत लौटकर सामाजिक संघर्ष की शुरुआत

भारत लौटने के बाद उन्होंने देखा कि समाज की स्थिति पहले जैसी ही है।
दलितों को अब भी:

  • पानी नहीं मिलता
  • मंदिर में जाने नहीं दिया जाता
  • सड़कें अलग
  • बस्तियाँ अलग

अम्बेडकर ने तय किया कि वे अब सिर्फ पढ़ेंगे नहीं बल्कि लड़ेंगे भी।

बहिष्कृत हितकारिणी सभा लोगों को संगठित करना

1924 में उन्होंने “बहिष्कृत हितकारिणी सभा” बनाई।
इसका काम था

  • दलित बच्चों को पढ़ाना
  • लोगों में आत्मविश्वास लाना
  • समाज को उसके अधिकारों के प्रति जागरूक करना

अम्बेडकर ने एक नारा दिया

“शिक्षित बनो, संगठित बनो, संघर्ष करो।”

यह नारा आगे चलकर करोड़ों दलितों की ताकत बना।

महाड़ आंदोलन पानी पीने का अधिकार

1927 में महाड़ का चावदार तालाब दलितों के लिए बंद था।
अम्बेडकर हजारों लोगों को साथ लेकर तालाब तक गए और पानी पिया।
यह कदम बहुत बड़ा था क्योंकि यह दलितों के “मानव अधिकार” की शुरुआत थी।

इसके बाद ऊँची जातियों ने तालाब “शुद्ध” करने की कोशिश की।
अम्बेडकर ने कहा

“यदि पानी भी छूने के लायक नहीं समझा जाता, तो समाज को जड़ से बदलने की ज़रूरत है।”

इस आंदोलन ने पूरे देश में जागृति लाई।

मनुस्मृति दहन अन्याय के विरुद्ध प्रतीक

मनुस्मृति में कई ऐसे नियम थे जो दलितों को नीचा दिखाते थे।
अम्बेडकर ने सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति दहन किया।
उन्होंने कहा

“जो ग्रंथ मनुष्य की बराबरी को नहीं मानता, वह मेरे लिए पवित्र नहीं है।”

यह साहसिक कदम सामाजिक क्रांति का प्रतीक बन गया।

राजनीतिक संघर्ष गोलमेज सम्मेलन से पूना पैक्ट तक

अम्बेडकर को महसूस हुआ कि राजनीति में हिस्सा लिए बिना दलितों को अधिकार नहीं मिलेगा।
वे गोलमेज सम्मेलन में गए और दलितों की समस्याएँ पूरे विश्व के सामने रखीं।

1932 में ब्रिटिश सरकार ने दलितों के लिए अलग चुनाव क्षेत्रों की घोषणा की।
गांधीजी ने इसका विरोध किया, अनशन किया।
अम्बेडकर पर दबाव बढ़ा।

आखिरकार पूना पैक्ट हुआ

  • अलग चुनाव क्षेत्र खत्म हुए
  • लेकिन दलितों को अधिक सीटें और संरक्षण दिया गया

अम्बेडकर ने समाज की भलाई को अपनी व्यक्तिगत सोच से ऊपर रखा।

संविधान निर्माण आधुनिक भारत की नींव

1947 में भारत आज़ाद हुआ।
संविधान सभा ने डॉ. अम्बेडकर को ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष चुना।

उन्होंने एक ऐसा संविधान बनाया जिसमें:

  • सभी नागरिक बराबर हैं
  • अस्पृश्यता अपराध है
  • धर्म की स्वतंत्रता है
  • शिक्षा और अवसर की समानता है
  • महिलाओं और कमजोर वर्गों को विशेष अधिकार दिए गए

अम्बेडकर ने कहा

“भारत में लोकतंत्र तभी टिकेगा जब समाज में भी लोकतांत्रिक सोच होगी।”

उनकी दृष्टि आज भी भारत की मजबूती का आधार है।

महिलाओं के अधिकार हिंदू कोड बिल

अम्बेडकर चाहते थे कि महिलाओं को:

  • संपत्ति में अधिकार मिले
  • तलाक का हक मिले
  • विवाह और उत्तराधिकार में समानता मिले

विरोध बढ़ा, बिल पास नहीं हुआ।
अम्बेडकर ने कहा

“एक समाज जो महिलाओं को बराबरी नहीं देता, वह सभ्य नहीं हो सकता।”

और उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
यह उनका नैतिक साहस था।

बौद्ध धर्म की ओर नया जीवन, नई राह

अम्बेडकर समझ चुके थे कि जाति व्यवस्था धर्म से भी मजबूती पाती है।


उन्होंने कहा

“मैं हिंदू के रूप में पैदा हुआ, यह मेरे बस में नहीं था।
पर मैं हिंदू के रूप में मरूँगा नहीं यह मेरे बस में है।”

14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने नागपुर में बौद्ध धर्म अपनाया।
लाखों लोग उनके साथ हुए। यह केवल धर्म परिवर्तन नहीं था यह स्वाभिमान का पुनर्जन्म था।

अंतिम दिनों का संघर्ष

अम्बेडकर की सेहत खराब थी, पर वे लगातार लिखते रहे।
वे “The Buddha and His Dhamma” की अंतिम पंक्तियाँ लिख रहे थे जब उनका जीवन अंत की ओर बढ़ चुका था।

6 दिसंबर 1956 को उनका निधन हुआ।
पूरा देश शोक में डूब गया।
उन्होंने बहुत कुछ किया, पर उनके अपने शब्दों में—

“मेरा काम अभी अधूरा है।”

अम्बेडकर की विरासत विचार जो कभी नहीं मरते

आज भारत में

  • संविधान
  • दलित आंदोलन
  • महिला आंदोलन
  • श्रमिक अधिकार
  • शिक्षा का प्रसार
  • सामाजिक बराबरी

इन सबमें अम्बेडकर दिखाई देते हैं।

वे केवल एक नेता नही एक सोच हैं।
एक ऐसी सोच जो कहती है

  • अन्याय का विरोध करो
  • शिक्षा से मजबूत बनो
  • समानता के लिए लड़ो
  • विज्ञान और तर्क को अपनाओ

अम्बेडकर ने हमें यह सिखाया कि

“एक मनुष्य, यदि उसके पास ज्ञान और साहस हो, तो पूरी दुनिया बदल सकता है।”


Friday, December 5, 2025

पौष मास हिन्दू पंचांग का एक ऐसा समयखंड है जो आध्यात्मिक साधना, तप, संयम, दान और देवपूजन के लिए अत्यंत पवित्र माना जाता है।

 


पौष मास 

भूमिका

पौष मास हिन्दू पंचांग का एक ऐसा समयखंड है जो आध्यात्मिक साधना, तप, संयम, दान और देवपूजन के लिए अत्यंत पवित्र माना जाता है। यह माह सूर्य के पुष्य नक्षत्र से संबद्ध होने के कारण “पौष” नाम से जाना जाता है। सूर्य जब धनु राशि में स्थित होता है और चंद्रमा से मिलकर समय का विशिष्ट तालमेल बनता है, तब यह मास आरम्भ होता है। भारतीय संस्कृति में यह मास ऋतु परिवर्तन, आध्यात्मिक उन्नति और धार्मिक अनुष्ठानों की अपूर्व ऊर्जा लिए हुए माना गया है।

पौष मास का ज्योतिषीय एवं खगोलीय आधार

पौष मास का आरम्भ सामान्यतः दिसंबर–जनवरी के बीच होता है। सूर्य जब धनु राशि में प्रवेश कर अपनी उत्तरायण यात्रा की तैयारी करता है, तब वातावरण में शीतलता का प्रभाव बढ़ जाता है। इस शीत ऋतु में मन और शरीर दोनों स्वाभाविक रूप से अंतर्मुखी होते हैं, इसलिए ऋषि-मुनियों ने इसे साधना के लिए श्रेष्ठ माना।

पुष्य नक्षत्र का स्वामी बृहस्पति है, इसलिए पौष मास में शुभ शक्ति, गुरु-त्व, ज्ञान, क्षमता और आध्यात्मिकता अत्यधिक प्रभावी होती है। यही कारण है कि इस मास में किए जाने वाले मंत्र-जप और हवन के परिणाम सामान्य दिनों की तुलना में कई गुना अधिक फलदायी माने जाते हैं।

पौष मास का धार्मिक महत्व

पौष मास में देवताओं की आराधना विशेष रूप से फलदायी होती है। इस मास में भगवान सूर्य की उपासना सर्वोपरि मानी गई है, क्योंकि सूर्य देव पोषण, ऊर्जा, स्वास्थ्य और आयु के प्रमुख स्रोत हैं। पौष महीना सूर्योपासना का मास माना गया है और मकर संक्रांति, जो इसी अवधि में आती है, सूर्य के उत्तरायण होने का शुभ पर्व है। योगशास्त्र के अनुसार भी सूर्य की ऊर्जा इस समय पृथ्वी पर अधिक प्रभाव डालती है।

शास्त्रों में कहा गया है कि पौष मास में अन्नदान, वस्त्रदान, घृतदान और कंबलदान अत्यंत पुण्यकारी होते हैं। चूँकि यह समय शीत ऋतु का चरम होता है, इसलिए जरूरतमंदों को सहायता देना दैवी गुणों को जागृत करता है।

पौष मास में व्रत-उत्सव और पर्व

पौष मास के दौरान कई महत्वपूर्ण व्रत और त्योहार मनाए जाते हैं। स्थानीय परंपराओं के अनुसार इनमें भिन्नता हो सकती है, लेकिन कुछ प्रमुख पर्व इस प्रकार हैं—

पौष पूर्णिमा

यह दिन स्नान, दान और तप का विशेष महत्व रखता है। कई स्थानों पर लोग गंगा या पवित्र नदियों में स्नान कर दान करते हैं। इस दिन संत-परंपरा में प्रवचन और सत्संग का विशेष आयोजन भी होता है।

कोपीन (लुंगी/कंदील) उत्सव

दक्षिण भारत में पौष मास धार्मिक दीप प्रज्ज्वलन के कारण अत्यंत शुभ माना जाता है। शीत ऋतु की अंधकारपूर्ण रात्रियों में प्रकाश ज्ञान का प्रतीक बनकर उत्सव का आयाम जोड़ता है।

ध्रुवदर्शन / ध्रुव पूजा

पौराणिक कथाओं के अनुसार ध्रुव महाराज ने कठिन तप करके भगवान विष्णु का साक्षात्कार इसी समय किया था। इसलिए पौष मास को तप का मास कहा जाता है।

मकर संक्रांति

पौष के अंत में पड़ने वाला यह पर्व सूर्य के उत्तरायण होने का संकेत देता है। यह काल प्रकाश की वृद्धि, ऊर्जा की बढ़ोतरी और सकारात्मकता का आरंभ माना जाता है।

पौष मास और तप–साधना

पौष मास का एक प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को तप, संयम और साधना की ओर उन्मुख करना है। ऋषि-मुनियों ने बताया है कि इस मास में शरीर और मन दोनों तप के अनुकूल हो जाते हैं। ठंड के कारण भोजन कम मात्रा में लेना, उपवास रखना, ध्यान करना और मंत्र-जप करना अधिक परिणामकारी होता है।

इस मास में “गीता पठान”, “सुंदरकांड”, “श्रीराम नाम”, “विष्णु सहस्रनाम”, “गायत्री मंत्र” आदि जप विशेष फलदायी माने गए हैं।

पौष मास में सूर्योपासना

सूर्य के धनु राशि में स्थित होने से उनकी किरणों में विशेष ऊर्जा और सूक्ष्म लाभदायक तत्व मौजूद होते हैं। इसी कारण पौष मास में प्रतिदिन सूर्य को अर्घ्य देना अत्यंत लाभकारी माना गया है।

सूर्योपासना के लाभ—

• नेत्रज्योति बढ़ती है
• रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है
• पाचन शक्ति सुधरती है
• मानसिक शांति मिलती है
• अवसाद और आलस्य कम होता है
• ग्रहदोषों में कमी आती है

"ॐ घृणि सूर्याय नमः" का जप इस मास में अत्यधिक प्रभावशाली बताया गया है।

पौष मास में किए जाने वाले दान

शास्त्रों में कहा गया है कि पौष मास में किया गया दान, अन्य मासों में किए गए दान से कई गुना पुण्यदायक होता है, क्योंकि यह समय देवताओं की विशेष कृपा का।

प्रमुख दान—

अन्नदान – भूखे को भोजन कराना सर्वोच्च दान
कंबलदान – ठंड से राहत देने का पुण्य
तिलदान – पितृ दोष शमन
घृतदान – स्वास्थ्य और दीर्घायु
वस्त्रदान – दैवी गुणों की वृद्धि

पौष मास और आयुर्वेद

आयुर्वेद के अनुसार पौष मास शीत ऋतु का मध्य है। इस समय वात दोष बढ़ता है और शरीर में कठोरता आ सकती है। इसलिए आहार में गर्म, स्निग्ध, मधुर रस और पौष्टिक पदार्थों का सेवन लाभकारी है।

उचित भोजन—

• घी
• तिल
• गुड़
• मूंगफली
• बाजरा
• जौ
• गर्म दूध
• सूप एवं दलिया

इस मास में शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का प्रयास भी किया जाता है।

पौष मास का सांस्कृतिक महत्व

भारत के ग्रामीण जीवन में पौष मास अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह फसलों की कटाई का समय होने के कारण किसानों के लिए उत्सव का माहौल बनाता है। धान, गन्ना, गेंहू आदि की खेती के लिए यह समय निर्णायक होता है।

विभिन्न राज्यों में पौष मास के दौरान कई लोक-उत्सव मनाए जाते हैं, जैसे—

• बंगाल में पौष संक्रांति
• दक्षिण भारत में पोंगल
• महाराष्ट्र में तिलगुल उत्सव

पुराणों में पौष मास

पौष मास का उल्लेख विभिन्न पुराणों में मिलता है। भागवत पुराण में ध्रुव की कथा इसी मास से जुड़ी है। स्कंद पुराण में कहा गया है कि पौष मास में की गई तपस्या एवं दान से व्यक्ति को अनेक जन्मों का पुण्य प्राप्त होता है। अग्नि पुराण में भी पौष के महत्व का विशद वर्णन मिलता है।

पौष मास और आध्यात्मिक उन्नति

इस मास का मूल उद्देश्य मनुष्य के जीवन को संतुलित, शांत और आध्यात्मिक बनाना है। ठंड व्यक्ति को प्राकृतिक रूप से भीतर की ओर चिंतनशील बनाती है। जब मन भीतर जाता है तो व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने लगता है। इसलिए ध्यान, जप, मौन, सामूहिक भजन आदि को प्राथमिकता दी जाती है।

समापन

पौष मास धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह मास व्यक्ति के जीवन में तप, साधना, शांति और संतुलन को बढ़ाता है। दान, उपवास, सूर्योपासना और ध्यान के माध्यम से मन-पुंसत्व का विकास होता है। ऋषि-मुनियों ने इसे तप और उजास का महीना कहा है। यह मास हमें अंदर की ज्योति को जगाने, समाज की सेवा करने और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।


Monday, December 1, 2025

चाटो चाटो पेपर चाटो – कविता

 


चाटो चाटो पेपर चाटो – कविता

चाटो चाटो पेपर चाटो,
पढ़ लो बेटा बैठ के बाटो।
इम्तिहान की घंटी बजने वाली,
किताबों से अब दोस्ती गाठो।

कल तुम ही कहोगे सबको,
“ये नंबर कैसे आ जाते?”
लेकिन आज जो पेपर चाटो,
कल सपने सच हो जाते।

मम्मी बोली—“ध्यान लगाओ!”
पापा बोले—“कमरे में बैठो!”
पर मोबाइल ने कहा—“आओ!”
अरे छोड़ो उसको, पेपर चाटो!

भविष्य अपना खुद बनाना,
रोज़ थोड़ा-थोड़ा घिस जाते।
मेहनत की पगडंडी वाले,
आख़िर ऊँचे पर्वत चढ़ जाते।

तो चाटो चाटो पेपर चाटो,
ज्ञान का दीपक आज जलाओ,
जितना पढ़ोगे उतना बढ़ोगे,
सपनों को पंख लगाओ।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
ज्ञान का प्याला भर-भर गाटो।
किताबों की दुनिया में जाकर,
सपनों का आकाश उठाकर लाटो।

सुबह-सुबह जब सूरज निकले,
नए इरादे संग ले आए,
पन्नों की सरसराहट सुनकर,
मन में नई उमंग जगाए।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
आलस को तुम दूर भगाओ।
जो मन कहे—“थोड़ा सो लेते?”
उसे हंसकर “नहीं!” बताओ।

रात-रात भर पढ़ते बच्चे,
कल की दुनिया बदलेंगे,
आज की मेहनत की सीढ़ियाँ,
भविष्य के शिखर चढ़ेंगे।

कितने डॉक्टर, कितने इंजीनियर,
कितने लेखक बन जाते हैं,
कितने कलाकार दुनिया में
मेहनत से ही छा जाते हैं।

कहते-कहते दादी अम्मा,
अपनी चश्मा ठीक लगातीं,
“बेटा पढ़ना जीवन धन है,
ज्ञान कभी कम न हो पाती।”

दादाजी भी हुक्का रखते,
और कहानी एक सुनाते—
“मैंने जीवन में जितना पाया,
सब पढ़कर ही घर पहुँचाते।”

चाटो चाटो पेपर चाटो,
कितना सुंदर, कितना प्यारा।
कागज़ पर ये नन्हे अक्षर,
ज्ञान का सागर को सँवारा।

अक्षर-अक्षर मोती जैसे,
पन्ना-पन्ना खान समान।
जो इसे मन से पढ़ लेता,
उसके कदम चूमे जहाँ।

कभी-कभी किताबें बोलें,
धीरे से कानों में कहतीं—
“हमें उठा लो, हमें पढ़ो,
हमसे भी दोस्ती रखतीं।”

मोबाइल का जादू भी कितना,
मन को बस खींचता जाता।
वीडियो के रंगीन छलावे में,
समय चुपचाप निकल जाता।

पर जो बच्चे समझदार हों,
समय की कीमत जान लेते,
थोड़ा खेलें, थोड़ा पढ़ लें,
जीवन की परख पहचान लेते।

पापा कहते—“सपना बड़ा रखो,
पर मेहनत उससे भी बड़ी।”
मम्मी कहती—“दिल लगाकर पढ़ो,
किस्मत होगी साथ खड़ी।”

चाटो चाटो पेपर चाटो,
मन में सपना, आँखों में आग।
पढ़ाई ही वो नाव है बेटा,
जो पार लगाए हर अनुराग।

कल जो टीचर समझाएँ तुमको,
आज ही उसका रियाज़ करोगे,
कल सवाल अचानक आए तो,
आसानी से जवाब दोगे।

परीक्षा केवल डर नहीं है,
ये तो खुद को परखने का दिन।
मेहनत का फल मिलेगा तुमको,
जब पाओगे अच्छे अंक गिन-गिन।

सपनों के रंग भरने वाले,
मेहनत की तूलिकाएँ होतीं।
भाग्य नहीं कुछ देता बेटा,
कोशिश रोज़ कमाई होती।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
सपनों की दुनिया अब मत टालो,
एक-एक पन्ना पढ़ जाओ,
भविष्य की सीढ़ी चढ़ जाओ।

जब तुम खुद पर विश्वास रखोगे,
कदम तुम्हारे आगे बढ़ेंगे।
जो आज पसीना बहाओगे,
कल मोती बनकर झरेंगे।

रातों की नींदें कुर्बान करो,
पर दिल में उमंग बनाए रखो,
जो भी बनना चाहते हो तुम—
उस मंज़िल की राह पकड़े रखो।

स्कूल की घंटी बजते ही,
नए अध्याय खुल जाते हैं।
दोस्तों संग पढ़ने बैठो,
शब्द नए खिल जाते हैं।

कभी-कभी पढ़ाई कठिन लगे,
थोड़ा सिर भारी हो जाए,
पर जो रुक जाए वो हार गया,
जो चल दे वो जीत दिखाए।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
मत कह देना—“कल पढ़ लेंगे!”
आज किया थोड़ा-थोड़ा,
कल पहाड़ जीत लेंगे।

हर पन्ने में नया उजाला,
हर सब्जेक्ट में नई कहानी,
कभी गणित में जोड़ घटाना,
कभी विज्ञान की रूहानी।

इतिहास में वीरों की बातें,
भूगोल में धरती का नक्शा।
अंग्रेज़ी में भाषा की लय,
कविताओं में मन का बक्शा।

पन्नों के इस बड़े जहाज़ को,
ज्ञान के सागर में तैरा दो।
मन को थामो, ध्यान लगाओ,
और अंत में बस इतना गाओ—

चाटो चाटो पेपर चाटो,
अपने सपनों को सच कर डालो,
मेहनत की किरनें चमक उठें,
पढ़ाई से दुनिया जीत निकालो।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
सपने अपने ऊँचे बाँटो।
पन्नों में संसार बसा है,
दिल में जोश का दीप जलाओ।

किताबों की ये पगडंडी,
धीरे-धीरे पर्वत बनती,
हौसले की छतरी लेकर,
मेहनत की बारिश में चलती।

सुबह-सुबह जब चिड़िया गाएँ,
पत्तों पर ओस चमक जाए,
किताबें भी फुसफुसाएँ तब—
“चलो, हमारी दुनिया में आओ भाई!”

चाटो चाटो पेपर चाटो,
जितना पढ़ो उतना ज्ञान बढ़े।
हर अक्षर छोटी सी ज्योति,
जो मन की अंधेरी रात हरें।

नानी कहती—“जब मैं छोटी,
दीपक टिमटिम रोशनी में,
मैंने अक्षर गिन-गिन पढ़े,
और पहुँच गई बड़ी मंज़िल में।”

दादा कहते—“मेहनत बेटा
किस्मत को खुद लिखवा लेती है।
जो पढ़ने में मन लगा ले,
वो दुनिया जीत दिखा देती है।”

पर मोबाइल?
मोबाइल तो शैतान बड़ा!
रंग-बिरंगे खेल दिखाकर,
समय को धीरे-धीरे खा जाता।
कभी रील, कभी गेम बुलाए,
मिनट पिघलकर घंटे बनाए।
पर समझदार बच्चे जानते—
सपने मेहनत से ही आए।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
अक्षर-अक्षर ज्ञान तुम्हारा।
कागज़ का हर एक टुकड़ा,
बन सकता है भाग्य सितारा।

जब बैठो पढ़ने, मन डगमगाए—
“क्या इतना पढ़ना ज़रूरी है?”
पर दिल के अंदर एक आवाज़,
धीमे से कहती—
“हाँ, यही तो मुश्किल घड़ी है।”

समय जैसे बहती नदिया,
बह जाएगी, रुकती नहीं।
पर जो समय थाम लेता है,
उसकी किस्मत झुकती नहीं।

दिन में थोड़ा, रात में थोड़ा,
पढ़ने की आदत बन जाती।
धीरे-धीरे मुश्किल बातें,
आसानी में बदल जातीं।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
कल परीक्षा आने वाली।
आज मेहनत हो जाएगी,
कल मुस्कान चमकने वाली।

स्कूल का मैदान याद करो,
दोस्तों के संग हँसी के पल,
टीचर की डाँट भी याद आती—
पर सबसे प्यारा— सीखना कल।

विज्ञान के प्रयोग बताते,
कैसे चलता हर दम संसार।
गणित कहता—“सोचो गहरी,
दिमाग़ बनाओ तेज़ धार!”

इतिहास में वीर खड़े मिलते,
गाथाएँ लेकर शान भरी।
भूगोल में नदियों का जाल,
पर्वत, महासागर, धरती धरी।

अंग्रेज़ी के नए शब्द जैसे
आसमान में उड़ते पंछी,
जितना पकड़ो, उतना सीखो,
ज्ञान की पोटली कभी न कच्ची।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
हर दिन थोड़ा आगे बढ़ो।
घरवालों का सपना पूरा,
मेहनत से तुम आज करो।

जब रात के 11 बज जाएँ,
थोड़ी थकान छा जाए अगर,
तो पानी पीकर फिर से बैठो,
सपनों का कर लो सुंदर सफ़र।

मेज़ पर रखी पेंसिल, रबर,
कॉपी कहती—“चलो शुरू!”
किताबों के पन्ने बोलें—
“हम हैं ना! सब होगा ठीक!”

फिर धीरे-धीरे याद हो जाए,
कठिन अध्याय भी सरल लगे।
जो चीज़ समझ नहीं आती,
दूसरे दिन टीचर से पूछो ठगे।

मेहनत की लाठी साथ रहेगी,
कभी तुम्हें गिरने न देगी।
परीक्षा में हर प्रश्न तुम्हें
देखते ही पहचान लेगी।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
ये मंत्र तुम्हारा आज बना लो।
पढ़कर तुम भी ऊँचे उड़ना,
सपनों को पंख लगाकर हिलो।

जब रिज़ल्ट के दिन सुबह-सुबह
दिल की धड़कन बढ़ती जाए,
वहीं चमकती मेहनत की रोशनी
चेहरे पर मुस्कान बनाए।

मम्मी की आँखें नम हो जाएँ,
पापा के होंठ दुआ पढ़ें।
गर्व भरा ये पल देख-सुनकर,
हवा भी गीत खुशी के गुनगुनाएँ।

कहानी यहीं नहीं रुकती,
जीवन तो अब शुरू हुआ।
हर क्लास में नई चुनौती,
हर साल नया लक्ष्य हुआ।

कभी छोटे-छोटे फेलियर आएँ,
मन टूटे थोड़ा, उदास लगे।
पर फिर याद आए ये मंत्र—
“पेपर चाटो, आगे बढ़ो,
कठिनाई से कौन डरता है भला?”

ज्ञान की गागर भरते-भरते,
एक दिन तुम शिखर पर जाओगे।
जिस दिन अपने सपने पूरे हों,
दुनिया को मुस्कान दिखाओगे।

और अंत में बस इतना समझो,
मेहनत ही जीवन की पूँजी है।
जो पढ़ाई को अपना ले ले,
उसे सफलता मज़बूती देती है।

तो बच्चो, सपने बुन लो,
मन में नई उमंग जगाओ।
और हर सुबह, हर दोपहर
बस इतना गाना गाओ—

किताबों का दीप जला लो।
मेहनत की मिसाल बनो तुम,
सपनों को सच में ढालो!

चाटो चाटो पेपर चाटो,
मेहनत का दीपक फिर से जला दो।
कल जो पन्ने छूट गए थे,
आज वही सब पूरा कर लो।

धीरे-धीरे चलने वाली
ये पढ़ाई कोई दौड़ नहीं।
पर जो धैर्य से आगे बढ़े,
उसकी मंज़िल खोए कहीं?

कभी-कभी तो बारिश में भी
किताबें खुद बुलाती हैं।
खिड़की के पास रखकर उनको,
बूँदों संग मुस्काती हैं।

पन्नों पर गिरती बूँदों में
ज्ञान की खुशबू महक उठे।
कागज़ की स्याही जैसे
मौसम से बातें कर उठे।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
बारिश में भी मत रुक जाना।
आज जो मेहनत कठिन लगे,
वो कल ताज बनकर चमक जाना।

शाम ढले जब सूरज सोए,
लाल किरणें घर भर जाएँ,
किताबों की पंक्तियाँ बोलें—
“आओ, थोड़ा समय हमें भी दिलवाओ भाई!”

नीले आसमान में तारे
चुपके से तुमको देखते।
वे भी जानते—रातों में
मेहनती बच्चे कब लेखते।

टीचर की आवाज़ याद आ जाए,
“बच्चों—ये प्रश्न ज़रूर आएगा!”
तुम हँसकर पन्ना पलट दो—
“हाँ सर, अब तो ये रटा-पक्का है!”

दादी की अलमारी के अंदर
पुरानी किताबें सोतीं क्या?
नहीं! वो तो तुमको देख-देख
अपनी यादें तुममें भरतीं क्या!

उनमें लिखी पुरानी स्याही
जैसे इतिहास सुनाती है।
कहती—“हर पीढ़ी मेहनत से ही
अपनी दुनिया बनाती है।”

चाटो चाटो पेपर चाटो,
समय को पकड़ लो मजबूती से।
क्योंकि समय वही साथ रहेगा
जो तुम थामो जिम्मेदारी से।

एक दिन जब कॉलेज जाना,
नई राहों पर कदम पड़े,
तो आज की मेहनत याद आकर
दिल में गर्व भरकर गढ़े।

कैंपस में बड़ा मैदान,
हवा में उड़ती उम्मीदें,
लाइब्रेरी में नई किताबें,
जीवन की अनगिनत गूँजें।

पर वहाँ भी यही मंत्र
तुम्हारा साथी बन जाएगा—
“पेपर चाटो, ध्यान लगाओ,
ज्ञान ही जीवन का सहारा बन जाएगा।”

और आगे जब नौकरी में
नई चुनौतियाँ सामने आएँगी,
फिर तुम अपनी पुरानी पढ़ाई
को याद कर-कर मुस्कुराएँगे।

क्योंकि वही पढ़ी बातें
तुम्हें फिर से राह दिखाएँगी।
मशीनों के बीच, लोगों के साथ,
तुम्हारी मेहनत पहचान बनाएगी।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
ये सिर्फ़ शब्द नहीं—आधार है।
हर सपने का, हर मंज़िल का,
हर जीत का, हर उपहार का सार है।

जब भविष्य में अपने बच्चों को
तुम कहानी सुनाने बैठोगे,
ये पन्नों की महक
उनको भी राह दिखाने आएगी।

तुम कहोगे—
“देखो बेटा, एक समय ऐसा था,
जब मैं भी रात-रात पढ़ता था।
थकता था, टूटता था,
पर हार कभी नहीं मानता था।”

बच्चा मुस्कुराकर तुमसे पूछेगा—
“पापा/मम्मी, इतनी ताकत आती कहाँ से?”
तुम हंसकर बोलोगे—
“यही से—
चाटो चाटो पेपर चाटो से!”

फिर दोनों मिलकर हँस पड़ेंगे,
और घर में ज्ञान की रोशनी फैलेगी।
यही पढ़ाई का असली धन है—
जो पीढ़ियों में चलता रहता है।

और आज…
जब तुम ये कविता पढ़ रहे हो,
मेहनत की आवाज़ बुला रही है।
कह रही है—
“चलो! समय उड़ रहा है,
आज भी कुछ नया सीखना है!”

तो उठो, किताब उठाओ,
मन में लक्ष्यों की आग जगाओ।
और अपने सपनों के मंदिर में
आज भी दीप जला जाओ।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
आदत ये अब जीवन बन जाए।
हर दिन थोड़ा, हर दिन बढ़कर,
ज्ञान तुम्हारा कवच बन जाए।

जब तक सपने भीतर जलते,
तब तक रास्ते खुलते रहते।
मेहनत कभी धोखा देती क्या?
नहीं!
वो तो हमेशा साथ रहती।

अंत में बस यही कहना—
जीवन का असली साथी यही है।
पढ़ाई से जो दूरी रखे,
वो मुश्किल में गिरना तय है।

पर जो आज मेहनत से
माथे पर पसीना बहाता है—
कल सफलता की मालाओं में
सिर अपना ऊँचा उठाता है।

और तुम भी कर सकते हो,
हाँ!
तुम ही वो चमकता सितारा हो,
जिसके सपने दूर चमक रहे,
जिसकी मेहनत जगमगा रही।

बस गाते रहो, दोहराते रहो—

किस्मत को खुद लिख डालो।

भविष्य तुम्हारा इंतज़ार करे,

आज को मेहनत से संभालो।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
आसमान से ऊँचा लक्ष्य बनाओ।
जहाँ नज़रें जाती रुक जातीं,
वहीं से आगे कदम बढ़ाओ।

आज की छोटी कोशिशें ही
कल बड़े चमत्कार बनें।
जो पढ़ाई के सूरज को पकड़े,
उसके दिन उजाले घनें।

सुबह की ठंडी हवा में
किताबों की खुशबू बस जाए।
जैसे फूलों से निकल कर
ज्ञान हवा में घुल जाए।

जब घर में सब सो जाएँ,
और खिड़कियाँ मौन हो जाएँ,
किताबें तब बात करतीं—
“हम तुमसे दोस्ती चाहें!”

चाटो चाटो पेपर चाटो,
रातों में भी मत थक जाना।
जो पन्नों की दुनिया में खोया,
उसने किस्मत को साधा जाना।

कभी समझ न आए सवाल,
कभी दिमाग़ उलझ जाए,
कभी लगे—
“बस अब नहीं होता!”
तो मुस्कुराकर आगे बढ़ जाएँ।

क्योंकि कठिनाई वो पहाड़ है,
जिसके पीछे मीठा फल होता।
जो चढ़ता है उसकी धड़कन
एक दिन दुनिया में ढोल होता।

स्कूल का बैग जब भारी लगता,
कंधों पर जैसे पर्वत हो,
पर वही बैग कल एक दिन
तुम्हारा गौरव–धरम–धन हो।

स्कूल की घंटी, टीचर की आवाज़,
दोस्तों की शरारत—सब यादें।
पर सबसे प्यारी होती वो कॉपी
जिसमें सपनों की नींव बिछा दी जाए।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
हर नाकामी सीख बन जाए।
जो कल समझ में नहीं आया,
वो आज सरल समाधान बन जाए।

पेपर चाटने का मतलब केवल
रटने भर से नहीं होता—
ये मतलब है मन लगाकर
हर अध्याय को समझना सच्चा।

जो बच्चा हर विषय को
अपना साथी बना ले,
वो जीवन के कठिन मोड़ पर भी
कभी पीछे न रह जाए।

अब एक नई दुनिया की बात,
जहाँ कंप्यूटर, मशीनें, ज्ञान अपार।
जो पढ़ाई में निपुण होगा,
वही बनेगा भविष्य का सितार।

डॉक्टर का स्टेथोस्कोप चमके,
इंजीनियर की मशीनें चलें,
वैज्ञानिक की खोज नई हो,
अंतरिक्ष में रॉकेट निकलें—
इन सबका आधार यही है—
पन्नों की दुनिया में डूबना।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
भविष्य को खुद आकार दो।
मेहनत से जो जीत मिले,
उसे खुद का अधिकार दो।

एक दिन ऐसा भी आएगा
जब मंच पर तुम्हारा नाम होगा।
भीड़ ताली बजाएगी,
गर्व से भरा हर इंसान होगा।

वहाँ जब तुम खड़े रहोगे,
चमकती आँखों वाले लोगों के बीच,
तब याद आ जाएगा—
ये सब शुरू हुआ था
एक छोटे से पन्ने से,
एक छोटी सी आदत से,
एक मंत्र से—
“पेपर चाटो!”

दिल में ये लहर उठेगी—
“काश आज दादी देखतीं!
काश आज मास्टरजी सुनते!
काश आज किताबें बोल पातीं!”

पर वो सब मुस्कुराएँगी,
वे यादें तुम्हें आशीष देंगी,
क्योंकि उन्होंने ही तो तुम्हें
किताबों से दोस्ती करवाई।

और तब तुम खुद तय कर लोगे—
अपने बच्चों को, और दुनिया को,
यही मंत्र आगे सिखाओगे—

“मेहनत की राह मुश्किल है,
पर जीत बड़ी शान की है।
किताबें कभी धोखा न दें,
ये जीवन की सच्ची जान हैं।”

चाटो चाटो पेपर चाटो,
जिस दिन तुम ये समझ गए,
उस दिन तुम केवल छात्र नहीं—
सफलता के योद्धा बन गए।

कदमों में दुनिया होगी,
आँखों में रोशनी होगी,
दिमाग़ में ज्ञान बहता होगा,
दिल में ऊर्जा उभरती होगी।

और आगे की कहानी यहीं से शुरू—
जहाँ तुम रहोगे विजेता,
जहाँ मेहनत तुम्हारी तलवार,
और किताबें तुम्हारी ढाल होंगी।

आने वाला कल तुम्हारा है,
बस आज को पकड़ लो।
पढ़ाई से जो दोस्ती कर लो,
जीवन की हर लड़ाई जीत लो।

और इस पूरे महाकाव्य के अंत में
बस यही अंतिम महा-मंत्र

मेहनत से दुनिया जीत लो।
पन्नों की आग से जलकर,
अपने सपनों को मीत लो!

चाटो चाटो पेपर चाटो,
ज्ञान की ज्योति फिर से जलाओ।
पन्नों का पर्वत सामने है,
हिम्मत की राहें खुद बनाओ।

अब तक तुमने सीढ़ियाँ चढ़ीं,
अब पर्वत की बारी है।
सपनों का सूरज सामने है,
बस मेहनत की तैयारी है।

कभी लगता—“क्यों पढ़ूँ इतना?”
मन पूछे सवाल अनोखे,
पर जवाब किताबों में छिपा—
“क्योंकि भविष्य तुम्हारी आँखों में सोखे।”

पेपर चाटना केवल शब्द नहीं,
एक तपस्या सा कर्म है।
जो मन से इसे अपनाए,
उसका जीवन गरिमामय धर्म है।

रात की नीरवता में जब
पेड़ भी सो जाते हैं,
तुम्हारी जलती स्टडी-लैम्प
सितारों में भी जगह पाते हैं।

किताबों की पंक्तियाँ चमकें,
स्याही जैसे नृत्य करे,
राज़ हजारों इन पन्नों में,
जो मन से पढ़े वही समझे।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
हर दिन थोड़ी मेहनत लिख दो।
कठिन अध्याय, मुश्किल बातें—
इन्हें जीतकर शोहरत लिख दो।

अब एक दृश्य सोचो—
घड़ी ने बारह बजा दिए,
पूरे घर में शांति,
पर तुम्हारी कॉपी पर
नए अक्षर गढ़ रहे भविष्य।

तुम्हारी आँखें थक जातीं,
पर दिल कहता—“आगे बढ़!”
सपने कहें—“रुकना नहीं!”
मेहनत कहे—“तुम कर सकते हो!”

भविष्य की कुर्सी पर बैठा
तुम्हारा सफल संस्करण
आज तुम्हें देख मुस्कुरा देगा—
“शाबाश बच्चे!
तुम सही रास्ते पर चल रहे हो।”

चाटो चाटो पेपर चाटो,
ये बात आज समझ ले लो—
मेहनत के पसीने से बढ़कर
कोई इत्र नहीं होता!

जो छात्र रातों में पढ़ता,
वही दिन में चमक दिखाता।
जो पढ़ाई की धुन में खोता,
वही समय का मूल्य समझ पाता।

अब पढ़ाई का रास्ता बदलता,
नया जमाना डेटा का है।
कंप्यूटर की स्क्रीन चमकती,
रोबोटिक्स, साइंस—सब नया है।

जो आगे बढ़ना चाहे,
उसके पास यही हथियार—
किताबें, ज्ञान, सीख,
और पेपर चाटने का अमृत-मंत्र।

सोचो—
एक दिन तुम लैब में होगे,
बड़ी मशीनें तुम्हारे इशारे पर,
कोड की लाइनों में भविष्य,
तुम्हारी उँगलियों में शक्ति।

सोचो—
एक दिन तुम डॉक्टर बनोगे,
सफ़ेद कोट पहन अलग चमक,
मरीज की जान बचाना
तुम्हारे ज्ञान का वरदान।

सोचो—
एक दिन तुम अंतरिक्ष में जाओगे,
सितारों के बीच उड़ते हुए।
और जब नीचे देखोगे,
तो याद आएगा—
“यही सब शुरू हुआ था
एक पन्ने से…
एक किताब से…
एक मंत्र से—
चाटो चाटो पेपर चाटो!”

चाटो चाटो पेपर चाटो,
ये सिर्फ़ पढ़ाई नहीं—
ये वह ऊर्जा है
जो इंसान को इंसान से महान बनाती है।

अब एक कहानी जोड़ते हैं—

एक छोटा बच्चा था,
नाम उसका उज्ज्वल।
स्कूल में ठीक-ठाक चलता,
पर सपने?
आसमान को छूने वाले।

उसे कोई सुपरपावर नहीं मिली,
ना किसी जादूगर का आशीर्वाद।
सिर्फ़ एक चीज़ मिली—
पढ़ाई की भूख।

वो रात में पढ़ता,
दिन में पूछता,
गलती करता,
सीखता,
फिर आगे बढ़ता।

लोग हँसते—
“इतना पढ़कर क्या होगा?”
वो मुस्कुराता—
“अभी नहीं बताऊँगा।”

साल बीते…
वही उज्ज्वल एक दिन
देश का सबसे बड़ा साइंटिस्ट बना।
दुनिया उसके काम पर तालियाँ बजाती।

और जब पूछा गया—
“तुम्हें इतना सब कैसे मिला?”
उज्ज्वल ने कहा—

“आज एक बात याद आ रही है—
मेरी दादी हर दिन कहती थीं—
चाटो चाटो पेपर चाटो।
तभी किस्मत तुम्हें चाटेगी।

यही सच था।”

तो बच्चो,
उज्ज्वल कोई चमत्कार नहीं था।
वो आप ही में से कोई हो सकता है।
बस एक कदम—
एक मंत्र—
एक आदत चाहिए।

चाटो चाटो पेपर चाटो,
कभी न कहना—“मैं नहीं कर सकता।”
क्योंकि किताबें कहती हैं—
“मेहनत करने वाला
हमेशा जीत सकता है!”

और अब—
इस महाकाव्य भाग के अंतिम छोर पर
एक अंतिम, विराट, जीवन-बदल देने वाली पंक्ति


अरमान की चीता जलते हुए

 


अरमान की चीता जलते हुए 

रात की सांझ उतरते ही,
दिल की दहलीज़ पर कोई दस्तक हुई थी,
वो शायद मेरे अरमान थे,
जो ज़िंदगी से अपनी हक़ की भीख माँगने आए थे।

मैंने पलटकर देखा तो
मुक्ति की लौ-सा एक मौन खड़ा था,
हवा में राख उछलती थी
और सपनों का क़ाफ़िला
चुपचाप धुआँ होता जा रहा था।

कहीं अहसास था—
कि कुछ ख्वाब उम्रभर अधूरे रहते हैं,
कहीं दर्द था—
कि जो संजोकर रखा, वही हाथों में जलकर राख बन जाए।

अरमान की चिता जलते हुए
एक-एक उम्मीद की लपट
मेरी पलकों के सामने नाचती रही,
जैसे कह रही हो—
"हर इच्छा पूरी नहीं होती,
कुछ की किस्मत में सिर्फ अग्नि की पूजा लिखी जाती है।"

मैंने उन जलती चिताओं में
अपनी ही कहानियों की गंध महसूस की,
किसी रिश्ते की टूटन,
किसी सपने की हार,
किसी मंज़िल की अधूरी प्यास।

लपटों के बीच
कुछ सवाल अनाथ खड़े थे—
"क्या हमने सच में हार मानी थी?
या बस वक्त ने हमसे हमारे हिस्से की खुशी छीन ली?"

हवा में उठती राख
जैसे हर जले हुए अरमान की प्रतिज्ञा थी,
कि दर्द भले ही सुलगता रहे,
पर दिल की आग कभी बुझती नहीं,
वो बस रूप बदलती है—
कभी उम्मीद बनती है, कभी ताक़त,
और कभी नई कहानी का जन्म।

जब अंतिम चिंगारी बुझने को आई,
तो लगा जैसे—
अरमानों की उस चिता से
एक छोटी-सी कोंपल जन्म ले रही हो,
जो कह रही थी—
"राख के बाद भी जीवन है,
हार के बाद भी राह है,
और जल चुके सपनों के बाद भी
नए अरमान पनपते हैं।"

सांझ की परछाइयों में भीगा हुआ
एक कोना मेरे दिल का चुप था,
वहीं कहीं पुरानी खिड़की के पास
कुछ अरमान सिर झुकाए बैठे थे,
जैसे अपनी ही अधूरी किस्मत पर
खुद से सवाल करते हों।

धीरे-धीरे हवा चली,
और उन अधूरे ख्वाबों की पोटली
अपने आप खुलती गई,
जैसे यादें किसी अनचाहे मेहमान की तरह
दरवाज़ा ठेलकर भीतर आ गई हों।

एक–एक अरमान ने
मेरी पलकों के सामने अपना चेहरा खोला,
किसी में बचपन का मासूम यकीन था,
किसी में जवानी की बेपरवाह ज़िद,
किसी में मोहब्बत की अनकही प्यास,
और किसी में ज़िंदगी के लिये किया गया
वो संघर्ष…
जिसे दुनिया ने कभी देखा ही नहीं।

मैंने देखा—
सपनों की यह भीड़
अब थकी हुई थी,
उनकी आँखों में आग का डर,
और दिल में अधूरेपन की चोट थी।
जैसे वे खुद कह रहे हों—
"चलो, अब हमें मुक्त कर दो…
हम इतने टूट चुके हैं
कि फिर खड़े होने की हिम्मत भी नहीं बची।"

और सच कहूँ—
शायद मैं भी अब
उनके बोझ को ढोने की ताक़त नहीं रखता था।
वक्त ने कंधों को थका दिया था,
और उम्मीद की रौशनी
बहुत दिनों से किसी अनजानी कैद में थी।

इसलिए मैंने
अपने मन के श्मशान घाट में
धीरे से एक आग जलाई—
धीमी, शांत,
जैसे किसी आख़िरी विदाई की लौ।

और फिर…
अरमान की चिता जलते हुए
अजब-सी खामोशी फैल गई।
ऐसा लगा
जैसे समय भी रुक गया हो।

लपटें उठीं—
धीरे-धीरे,
पहले संकोच से,
फिर गर्जना की तरह।
हर चिंगारी
एक कहानी थी,
हर लपट
एक टूटे हुए ख्वाब की आख़िरी चीख।

कोई अरमान कह रहा था—
"मुझे तो बस एक मौका चाहिए था…"
कोई पुकार रहा था—
"क्यों मुझे आधे रास्ते में छोड़ दिया?"
और कुछ…
बस गुमसुम थे,
जैसे समझ चुके हों
कि कुछ सफ़र तकदीर तय करती है,
इंसान नहीं।

मेरी आँखें भीग गईं।
वह आग
सिर्फ चिता नहीं थी,
वह मेरा अतीत था,
मेरी नाकामियाँ,
मेरी किस्मत की चोटें,
मेरे उन फैसलों की राख,
जिन्हें आज तक मैं सही या ग़लत तय नहीं कर पाया।

पर एक अजीब बात हुई—
जैसे-जैसे आग बढ़ती गई,
दिल का बोझ हल्का होता गया।
जली हुई लकड़ियों की परतों में से
एक अजीब-सा सुकून निकलता गया,
जैसे कोई कह रहा हो—
"जो खत्म हो गया,
उस पर रोने से क्या हासिल?
अब नयी राहें खोज…
नये ख्वाब जन्म दे।"

चिता की आग
जब अपने शिखर पर थी,
आसमाँ भी लाल हो उठा।
ऐसा लगा
जैसे बादल भी
इस विदाई में शामिल हो गए हों।
हवा में फैलती राख
किसी मुक्ति-मंत्र की तरह थी।

और फिर…
जब आग शांत होने लगी,
तो राख की गोद में
एक छोटी-सी चमक दिखी—
बहुत हल्की-सी,
पर बिल्कुल साफ़।
जैसे किसी नए अरमान का बीज
इस राख से ही उग रहा हो।

तभी समझ आया—
अरमानों की चिता जलते हुए
दरअसल मौत नहीं थी,
वह एक पुनर्जन्म था।
पुराने सपने भले राख हो गए,
पर उस राख से
नये सपनों की मिट्टी बन रही थी।
दिल के ज़ख्म
अब भी थे,
पर उनमें से
नई शक्ति की एक नन्ही कोंपल फूट रही थी।

मैंने राख को माथे से छुआ,
और महसूस किया—
हार भी कभी-कभी
सबसे बड़ी जीत का रास्ता बनती है।
अधूरे अरमान
किस्मत के सामने झुकते हैं,
पर इंसान
अपने हौसलों के सामने नहीं झुकता।

आज भी
रात की खामोशी में
जब हवा चलती है,
तो लगता है
जैसे वही राख उड़कर
मेरे दिल को छू जाती है
और कहती है—
"मत डर…
जो जल चुका,
वह खत्म नहीं,
वह बस नया रूप ले चुका है।"

शाम का सूरज आधा डूब चुका था,
उसकी अंतिम किरणें
मेरे कमरे की दीवारों पर
टूटे हुए सपनों की तरह बिखर रही थीं।
हवा धीमी थी,
पर उसके भीतर
अधूरे अरमानों की थरथराहट छुपी थी,
जैसे समय ने खुद आकर
मेरे सीने पर बोझ रख दिया हो।

मेरे भीतर एक शोकसभा-सी बैठी थी—
कुर्सियाँ खाली,
आँखें नम,
और दिल के कोनों में
टूटे वादों का धुआँ उठता हुआ।
हर खामोशी एक कहानी थी,
हर सांस एक स्वीकारोक्ति,
और हर धड़कन
उस याद की सजा थी
जिससे आज भी छुटकारा नहीं मिला।

मैंने चारों तरफ देखा—
सपनों के वे धूल भरे संदूक,
इच्छाओं की वे पुरानी परतें,
अनकहे शब्दों का वह बंद दरवाज़ा,
और सबसे दर्दनाक—
वो अधूरी उम्मीदें
जो अब भी मेरी आँखों में
जीने की गुहार लगा रही थीं।

दिल ने कहा—
"अब बहुत हुआ।
इन अरमानों को इस तरह
न घसीटता रह।
जो टूट चुका है,
उसे दफना दे,
ताकि तू खुद फिर ज़िंदा हो सके।"

और मैं…
शायद पहली बार
अपने ही दिल की बात मान गया।

मैंने अपने मन के श्मशान घाट की ओर
एक धीमी-सी चहलकदमी की—
वह कोई जगह नहीं थी,
बल्कि एक अवस्था थी,
जहाँ इंसान
अपने टूटे सपनों की अंतिम यात्रा निकालता है।
जहाँ उम्मीदें कफ़न पहनती हैं
और इच्छाएँ
अपने ही धुँधले भविष्य को
आँखें मूँद कर सुपुर्द-ए-ख़ाक कर देती हैं।

मैंने उन अरमानों को
अपने हाथों में उठाया—
वे हल्के थे,
पर उनकी पीड़ा
मेरी हड्डियों तक उतर गई थी।
कोई अरमान
माँ के सपने जैसा कोमल था,
कोई पिता की उम्मीद जैसा कठोर,
कोई मित्रता की निष्ठा जैसा स्थायी,
और एक…
जो प्रेम का था—
वह सबसे भारी था,
जिसके टूटने की आवाज़
अब भी मेरी नींद में
चीख की तरह गूँज जाती है।

मैंने उन सबको
एक-एक करके
चिता पर सजा दिया।
हर अरमान को रखते समय
दिल एक बार टूटता,
सीना एक बार भर्रा जाता,
और आँखें
एक बार फिर गीली हो जातीं।

चिता तैयार थी,
अरमान थक चुके थे,
और मैं…
शायद सबसे ज्यादा टूटा हुआ था।

धीरे से आग लगाई—
एक छोटी-सी चिंगारी से।
पर जैसे ही आग ने
पहले अरमान को छुआ,
लपटें दहाड़ उठीं—
जैसे सदियों से घुटा हुआ दर्द
आज खुलकर सामने आ गया हो।

लपटें बढ़ती गईं।
उनमें एक-एक कर
सारे अरमान जलने लगे।
किसी की चीख थी—
"मैं पूरा हो सकता था!"
किसी का रोना—
"मुझे बस थोड़ा समय चाहिए था…"
किसी का सवाल—
"क्यों छोड़ दिया मुझे आधे सफर में?"
और कुछ…
बस मौन थे—
वे इतने टूट चुके थे
कि अब आवाज़ भी उनमें नहीं बची थी।

चिता की हर आग
मेरे अतीत का एक अध्याय थी।
मैंने देखा—
मेरे बचपन का आत्मविश्वास
धीरे-धीरे धुआँ बनकर उड़ रहा था।
जवानी की बेपरवाह हिम्मत
सुर्ख अंगारों की तरह चटक रही थी।
मेरी अधूरी मोहब्बत
लपटों में तड़प रही थी—
आखिर की चीख में
एक ऐसी पीड़ा थी
जिसे शब्द कभी नहीं पकड़ पाएंगे।

आग बढ़ती गई—
धीमी,
फिर भड़कती हुई,
फिर अपने चरम पर।
उसकी लपटें
आसमान को छू रही थीं—
जैसे एक इंसान का दर्द
कुदरत तक शिकायत ले गया हो।

राख उड़ने लगी।
हवा भावुक हो चली,
अचानक तेज़ होकर
राख को मेरी आँखों में ले आई।
मैंने उन्हें पोंछा नहीं—
क्योंकि वह राख
मेरी अपनी ही हार थी,
मेरे अपने ही टूटे हुए चरण थे,
जिन्हें मैं अंतिम बार
महसूस करना चाहता था।

घंटों बीते—
आग शांत होने लगी।
लपटें थक गईं,
अरमान मिट गए,
और चिता—
धधकते हुए जीवन का
अंतिम पृष्ठ बनकर
ठंडी पड़ने लगी।

मैं राख के पास बैठ गया।
खामोशी इतनी गहरी थी
कि अपनी ही सांसें सुनाई दे रही थीं।
वह क्षण
मेरे जीवन का सबसे शांत,
सबसे पीड़ादायक
और सबसे सत्य क्षण था।

मैंने हाथ बढ़ाया,
एक मुट्ठी राख उठाई,
और वह मेरे हाथों से फिसलकर गिर गई—
जैसे कह रही हो—
"तुझे अब हमें छोड़ना ही होगा।"

और अचानक…
राख के भीतर
एक हल्की-सी चमक दिखाई दी।
बहुत छोटी,
बहुत कोमल,
जैसे किसी नये सपने का
पहला दिल-धड़कन।

तभी समझ आया—
अरमानों की चिता
दरअसल अंत नहीं थी,
वह शुरुआत थी।
वह एक संस्कार था—
जहाँ पुराना जलकर खत्म होता है
ताकि नई संभावना जन्म ले सके।

मेरे टूटे हुए दिल की राख से
एक नई चाहत उगी,
मेरी बदली हुई सांसों में
एक नया हौसला आया।
वह नन्ही चमक
धीरे-धीरे बढ़ने लगी,
जैसे कह रही हो—
"मैं नया सपना हूँ।
मुझे जीने का हक
तुने आग की लौ से खरीदा है।
अब मुझे मत छोड़ना।"

मैं उठ खड़ा हुआ।
राख का एक कण
मेरी हथेली पर चिपक गया—
और मैं समझ गया
कि टूटे अरमानों का
हर कण
अब मेरी नई शक्ति बनेगा।

मैं चला…
धीरे-धीरे,
पर पहले से हल्का,
पहले से समझदार,
पहले से ज्यादा ज़िंदा।

क्योंकि—
जो अरमान जलते हैं,
वह खत्म नहीं होते।
वे राख बनकर
हौंसलों की मिट्टी में मिल जाते हैं,
और वहीं से
एक नई सुबह,
एक नया सपना,
और एक नया इंसान जन्म लेता है।


एक ख़्वाहिश जो कभी पूरी नहीं हुई

 

एक ख़्वाहिश जो कभी पूरी नहीं हुई

एक ख़्वाहिश थी दिल के एक कोने में,
चुपचाप धड़कती रही सपनों के खोने में।
ना किसी से कह पाई, ना खुद से कभी,
बस मुस्कानों के पीछे छुपी रही वो सभी।

रातों की तन्हाई में अक्सर जाग उठती थी,
आँखों की पलक पर आकर ठहर-सी जाती थी।
हवा भी उसके किस्से सरगोशी में कहती,
पर किस्मत की राहें उस तक कभी न बहतीं।

कभी उम्मीदों ने उसके दरवाज़े पर दस्तक दी,
कभी हालातों ने सारी मंज़िलें ही बदल दीं।
दिल ने बहुत सँभाला उसे टूटने से पहले,
पर वक़्त ने थाम लिया हँसने से पहले।

आज भी वो ख़्वाहिश दिल में महकती है,
अधूरी होकर भी जैसे पूरी-सी लगती है।
क्योंकि हर अधूरापन भी एक कहानी देता है—
और सपनों को जीने का एक बहाना देता है।

एक ख़्वाहिश जो कभी पूरी नहीं हुई
एक ख़्वाहिश थी दिल में कहीं,
समय की धूल तले दब गई वही।
न पूरी हुई, न खो ही सकी,
बस आँखों में एक चमक-सी बनकर
आज तक जगी रही।

एक ख़्वाहिश जो कभी पूरी नहीं हुई

दिल के किसी शांत, अनकहे से कोने में
एक ख़्वाहिश थी…
छोटी-सी, मासूम-सी,
पर उतनी ही ज़िद्दी भी।
वो हर धड़कन के साथ
धीमे-धीमे पलती रही,
जैसे बिना धूप के भी
कोई कली खिलने का सपना देखती हो।

वक़्त बदलता रहा,
रास्ते बदलते रहे,
किस्मत अपनी चालें चलती रही—
पर वो ख़्वाहिश
इतनी सरल भी नहीं थी
कि बस यूँ ही पूरी हो जाती,
और इतनी मज़बूत भी नहीं
कि दिल से कभी निकल पाती।

कभी रात की ख़ामोशी में
वो अचानक दिल को चुभ जाती,
कभी किसी याद के बहाने
आँखों में हल्की-सी नमी छोड़ जाती।
कभी लगा…
शायद कल पूरा हो जाए,
कल से उम्मीदें बंध जातीं,
और हर कल बीत जाने पर
एक और 'कभी' जोड़ जाती।

लोग कहते हैं—
अधूरी ख्वाहिशें दर्द देती हैं,
पर सच तो ये है कि
वो हमें जिंदा रखती हैं।
क्योंकि वही तो वो पन्ने हैं
जो हमारी कहानी को
गहराई देते हैं,
रूह को एहसास देते हैं।

आज भी वो ख़्वाहिश
कहीं न कहीं सांस ले रही है—
शायद किसी धुंधले सपने में,
शायद किसी भूली मुस्कान में,
या शायद सिर्फ़ इस उम्मीद में
कि एक दिन…
वक़्त, किस्मत और हौसला
एक ही मोड़ पर मिल जाएँ।

और अगर न भी मिले—
तो भी क्या?
कुछ ख़्वाहिशें अधूरी रहकर ही
सबसे ज़्यादा खूबसूरत लगती हैं।

दिल के एक पुराने, धूल लगे संदूक में
एक ख़्वाहिश पड़ी थी…
वक़्त–वक़्त पर हल्का-सा हिल जाती,
पर कभी बाहर आकर दुनिया को
अपना चेहरा न दिखा पाती।

वो ख़्वाहिश न बहुत बड़ी थी,
न कोई चमत्कार माँगती थी—
बस थोड़ा-सा अपनापन,
थोड़ी-सी मोहब्बत,
या शायद किसी अधूरे पल को
पूरा होने का अवसर।

पर ज़िंदगी की राहों में
ऐसे ही छोटे सपने
सबसे ज्यादा ठोकर खाते हैं।
क्योंकि बड़े सपने तो
हौसले से लड़ लेते हैं,
छोटे सपने
दिल की खामोशी से हार जाते हैं।

कभी वो ख़्वाहिश
भीड़ में चलती भीड़ से अलग
किसी अनजाने चेहरे से मिलने की चाह थी,
कभी किसी अपने के दिये वादे पर
भरोसा करने की चाह,
और कभी यूँ ही
किसी शाम, बिन वजह मुस्कुरा लेने की चाह।

पर हर चाह की एक उम्र होती है—
कुछ बचपन में मर जाती हैं,
कुछ जवानी में हार जाती हैं,
और कुछ उम्र भर साथ चलती हैं
पर कभी पूरी नहीं होतीं।

वो भी ऐसी ही थी—
मेरे साथ चलती,
मेरे साथ हँसती,
कभी-कभी रो भी लेती थी।
जब मैं थक जाता,
वो भी धीमी पड़ जाती;
जब मैं गिर जाता,
वो भी टूटने लगती।
पर मरती कभी नहीं थी—
क्योंकि अधूरी ख़्वाहिशें
मरना नहीं जानतीं।

कई बार लगा
अब ये ख़्वाहिश बोझ बन गई है,
कई बार लगा इसे दिल से निकाल दूँ,
तेज़ हवा में उड़ा दूँ,
किसी नदी में बहा दूँ।
पर जब-जब कोशिश की,
दिल की किसी कोमल नस ने
उसकी डोर पकड़ ली—
जैसे कहना चाहती हो:
"अधूरेपन में भी कुछ सौंधी-सी ख़ुशबू होती है।"

कभी लगता
शायद ये पूरी नहीं हुई,
क्योंकि मैं उसे
पूरी तरह से चाहता ही नहीं था।
कभी लगता
शायद किस्मत को मंज़ूर ही नहीं था।
और कभी ऐसा भी लगा
कि कुछ ख़्वाहिशें
पूर्णता के लिए नहीं,
बस अस्तित्व के लिए जन्म लेती हैं।

आज इतने साल बाद
जब पलटकर देखता हूँ,
तो मालूम होता है—
वो ख़्वाहिश अगर पूरी हो जाती,
तो शायद मैं वही न रहता
जो आज हूँ।
शायद मेरी कहानी भी
साधारण सी बन जाती,
और मेरा दर्द
इतना खूबसूरत न होता।

क्योंकि…
अधूरी ख्वाहिशें
ज़िंदगी को तड़प भी देती हैं
और मतलब भी।
वे हमें हर दिन याद दिलाती हैं
कि दिल सिर्फ़ धड़कन से नहीं,
उम्मीद से भी चलता है।

और हाँ—
वो ख़्वाहिश आज भी वहीं है,
दिल के उसी कोने में,
एक छोटे दीपक की तरह
जिसकी लौ कभी बुझती नहीं।
कभी मंद, कभी तेज़,
पर जलती जरूर है।

क्योंकि जिसे पूरा होना होता है
वो पूरा हो जाता है,
और जिसे याद बनना होता है
वो —
अधूरा रहकर भी
हमेशा पूरा रहता है।


एक अरमान का अंतिम संस्कार

 एक अरमान का अंतिम संस्कार


चुपके-चुपके दिल की चौखट पर,

एक अरमान आज रो पड़ा।

सपनों की चिता सजाकर,

खुद ही धधकती आग में सो पड़ा।


हवाओं ने पूछा — “क्यों छोड़ा उसे?”

मैंने कहा — “वक़्त ने साथ नहीं दिया…”

पर राख में दबी चमक बताती रही,

कि वो अरमान आज भी जिंदा था,

बस दुनिया को दिखना बंद हो गया था।


अब दिल में एक दीप जला रखा है,

जिसकी लौ कहती है बार-बार—

“अंतिम संस्कार अरमानों का होता नहीं,

वे बस रूप बदलकर,

नई राहों में चल पड़ते हैं।”


रात की निस्तब्धता में,

दिल के किसी कोने में एक हलचल हुई—

जैसे किसी टूटे सपने ने

आख़िरी बार करवट ली हो।


मैंने झुककर देखा—

वहाँ एक अरमान पड़ा था,

धूल से ढका हुआ,

वक्त की बेड़ियों में बंधा,

सांसें धीमी, उम्मीदें थकी हुई।


कभी ये अरमान दुपहरी की धूप था,

मेरे चेहरों पर मुस्कान का रूप था,

भोर की ताज़गी,

एक नई मंज़िल का नक्शा था।

पर आज वो बुझा-बुझा,

थका-मांदा,

अपनी ही परछाई को ढूंढता हुआ।


मैंने उसे उठाकर सीने से लगाया—

कितना हल्का हो गया था…

जैसे भीतर से सब ख़ाली कर बैठा हो।


उसने कहा—

“मैं चला जाऊँ क्या?

अब तेरे पास जगह कहाँ है?

तेरे दिनों में व्यस्तता,

रातों में थकान,

और सपनों में दूसरे सपने बसे हुए हैं…”


मैं चुप रहा।

जवाब तो मेरे पास था,

पर शब्द नहीं।


फिर मैंने धीमे-धीमे

एक लकड़ी की चिता तैयार की—

वक्त की टूटी टहनियों से,

खामोशी की लंबी लकड़ियों से,

पछतावे की थोड़ी-सी आग से।


अरमान मुस्कुराया—

“डर मत, मैं मर नहीं रहा,

बस तेरी ज़िन्दगी की किताब में

अपना पन्ना बदल रहा हूँ।”


मैंने उसकी बातें सुनी,

और आख़िरी बार उसे देखा—

वो धुआँ बनकर ऊपर उठा,

जैसे आसमान को बताने गया हो

कि वह अभी हार नहीं माना,

बस नया रूप ले रहा है।


राख ठंडी होते ही

हवा ने धीरे से कहा—

“जिस अरमान का अंतिम संस्कार हुआ है,

वह खत्म नहीं होता,

वह बीज बनकर

दिल के किसी और कोने में

फिर से उग आता है।”


मैंने सिर उठाकर आसमान देखा—

वहाँ धुएँ की लकीरों में

एक नया रास्ता चमक रहा था।


और मैंने समझ लिया—

कि अरमान मरते नहीं,

हम बस कभी-कभी

उन्हें खो देते हैं।


नई सुबह ने मेरे कंधे पर हाथ रखा—

जैसे कह रही हो,

“चलो…

अब उस राख से

एक नया अरमान जन्म लेगा।”

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आज का समय अत्यंत गतिशील, जटिल और निरंतर बदलती परिस्थितियों से भरा हुआ है। मानवीय जीवन सदियों से संघर्ष का पर्याय रहा है।

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