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Monday, November 3, 2025

मन और आत्मा का संबंध अत्यंत गूढ़, दार्शनिक और आध्यात्मिक महत्व जिसमें मन और आत्मा के स्वरूप, उनके परस्पर संबंध, योग और दर्शन के दृष्टिकोण, तथा आधुनिक मनोविज्ञान के संदर्भों का भी समावेश है।

 

मन और आत्मा का संबंध”  अत्यंत गूढ़, दार्शनिक और आध्यात्मिक महत्व जिसमें मन और आत्मा के स्वरूप, उनके परस्पर संबंध, योग और दर्शन के दृष्टिकोण, तथा आधुनिक मनोविज्ञान के संदर्भों का भी समावेश है।

 

मन और आत्मा का संबंध

(एक गहन दार्शनिक अध्ययन)

प्रस्तावना

मनुष्य सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी है। उसके भीतर चिंतन, विवेक, भावना, संकल्प, और आत्मबोध की अनोखी शक्ति है। यह शक्ति उसके "मन" और "आत्मा" से निर्मित होती है। जहाँ आत्मा शाश्वत, अमर और चेतन सत्ता है, वहीं मन परिवर्तनशील, चंचल और अनुभवशील तत्व है। मन आत्मा का उपकरण है, माध्यम है, और आत्मा के अनुभव का दर्पण है। मन के माध्यम से ही आत्मा संसार से जुड़ती है और मन के नियंत्रण से ही आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप — परमात्मा — की प्राप्ति कर सकती है।

 

आत्मा का स्वरूप

आत्मा संस्कृत शब्द “आत्मन्” से बना है, जिसका अर्थ है “स्वयं”, “अंतरंग चेतना” या “जीवन का मूल तत्व”।
वेद, उपनिषद् और गीता में आत्मा को निम्नलिखित रूप में वर्णित किया गया है:

·         आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है।

·         आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है

·         वह सर्वव्यापक, चेतन और प्रकाशस्वरूप है।

·         आत्मा शरीर, इंद्रिय, मन, बुद्धि से भिन्न है।

कठोपनिषद् में कहा गया है –

न जायते म्रियते वा कदाचित् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।”
अर्थात् आत्मा न कभी जन्म लेती है, न कभी मरती है; वह शाश्वत है।

 

मन का स्वरूप

मन भौतिक नहीं, किंतु सूक्ष्म तत्त्व है। वह शरीर और आत्मा के बीच का सेतु (bridge) है।
वेदांत के अनुसार मन अंतःकरण चतुष्टय का एक भाग है —

1.      मन (सोचने और कल्पना करने वाला)

2.      बुद्धि (निर्णय करने वाली शक्ति)

3.      चित्त (स्मृति और अनुभव का संग्रह)

4.      अहंकार (स्वत्व की भावना)

मन का कार्य है —

·         अनुभव करना

·         सोच-विचार करना

·         कल्पना करना

·         निर्णय में सहायता देना

·         संकल्प और विकल्प बनाना

गीता में कहा गया है —

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।”
अर्थात् मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है।

 

मन और आत्मा का संबंध

मन और आत्मा का संबंध वैसा ही है जैसा दर्पण और सूर्य का। आत्मा सूर्य की तरह स्थिर और प्रकाशमान है, जबकि मन दर्पण की तरह उसका प्रतिबिंब दिखाता है। जब दर्पण स्वच्छ होता है, तब आत्मा का प्रकाश स्पष्ट दिखाई देता है; जब मन मलिन होता है, तब आत्मा का प्रकाश धूमिल पड़ जाता है।

आत्मा जानती है, मन अनुभव करता है
आत्मा साक्षी है, मन कर्ता है।
आत्मा स्थिर है, मन चंचल है।
आत्मा शुद्ध है, मन वासनाओं से ग्रस्त है।

इस प्रकार मन आत्मा का माध्यम है। आत्मा स्वयं कुछ नहीं करती, परंतु मन के माध्यम से कार्य का अनुभव करती है।

 

वेदांत दृष्टिकोण से मन-आत्मा संबंध

वेदांत कहता है कि जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। यह भेद केवल अविद्या (अज्ञान) से उत्पन्न होता है।
मन उस अज्ञान का उपकरण है जो आत्मा को संसार में बंधन में रखता है।

·         जब मन बाह्य विषयों में रमता है, तो आत्मा अपने सच्चे स्वरूप को भूल जाती है।

·         जब मन भीतर की ओर लौटता है (अंतर्मुख होता है), तो आत्मा का अनुभव होता है।

शंकराचार्य कहते हैं —

मन एव कारणं मनुष्याणां बन्ध-मोक्षयोः।”
अर्थात् मन ही बंधन और मुक्ति दोनों का मूल कारण है।

यदि मन वासनाओं, क्रोध, ईर्ष्या, मोह से भर जाए तो आत्मा का तेज ढँक जाता है; पर जब मन निर्मल हो जाए, तो आत्मा का प्रकाश अपने आप प्रकट होता है।

 

योग दर्शन में मन और आत्मा

पतंजलि योगसूत्र में कहा गया है —

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।”
अर्थात् योग वह अवस्था है जिसमें चित्त (मन) की वृत्तियाँ शांत हो जाती हैं।

यह योग साधना का मूल उद्देश्य है —
मन की चंचलता को रोककर आत्मा के साक्षात्कार तक पहुँचना।

योग में कहा गया है कि आत्मा और मन के बीच पाँच परतें होती हैं —

1.      अन्नमय कोश (भौतिक शरीर)

2.      प्राणमय कोश (जीवन ऊर्जा)

3.      मनोमय कोश (मन)

4.      विज्ञानमय कोश (बुद्धि)

5.      आनंदमय कोश (आत्मिक आनंद)

जब साधक ध्यान द्वारा मनोमय कोश से ऊपर उठता है, तब आत्मा के अनुभव का मार्ग खुलता है।

 

गीता का संदेश: मन का संयम और आत्मा का अनुभव

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा —

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।”
अर्थात् मनुष्य को अपने ही मन द्वारा स्वयं को ऊँचा उठाना चाहिए, न कि नीचे गिराना चाहिए।

गीता में मन को “मित्र” और “शत्रु” दोनों कहा गया है:

·         संयमित मन हमारा मित्र है।

·         असंयमित मन हमारा शत्रु है।

आत्मा तो सदैव मुक्त है; केवल मन की असंयमता उसे बंधन का अनुभव कराती है।

 

मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से मन-आत्मा का संबंध

आधुनिक मनोविज्ञान “आत्मा” को metaphysical मानता है, परंतु “मन” को चेतना, अवचेतन, और अचेतन स्तरों में विभाजित करता है।
फ्रायड ने कहा कि मन में तीन स्तर हैं:

·         चेतन (Conscious)

·         अवचेतन (Subconscious)

·         अचेतन (Unconscious)

जब यह चेतना गहरी होती है, तब व्यक्ति अपने भीतर की गहराई (आत्मिक स्तर) को महसूस करता है।
इस प्रकार, भले ही मनोविज्ञान आत्मा को वैज्ञानिक रूप से न माने, पर यह मानता है कि मन के गहरे स्तरों में एक शाश्वत चेतना विद्यमान है।

 

मन की अशुद्धियाँ और आत्मा की दूरियाँ

मन जब विषय-वासना, क्रोध, ईर्ष्या, मोह, लोभ, अहंकार जैसे दोषों से भर जाता है, तब आत्मा से उसका संबंध क्षीण हो जाता है।
यह अशुद्धियाँ आत्मा और मन के बीच परदा बन जाती हैं।

उदाहरण:
जैसे सूर्य सदैव चमकता है, परंतु बादल उसके प्रकाश को ढँक देते हैं। उसी प्रकार आत्मा सदैव ज्योतिर्मय है, परंतु मन के विकार उसे ढँक लेते हैं।

 

आत्मा का अनुभव: मन की शुद्धि द्वारा

मन को शुद्ध करने के प्रमुख साधन हैं —

1.      ध्यान (Meditation)

2.      प्रार्थना (Prayer)

3.      भक्ति (Devotion)

4.      सत्संग (Spiritual company)

5.      स्वाध्याय (Spiritual study)

6.      सेवा (Selfless service)

जब मन शांत होता है, तब आत्मा की ज्योति भीतर से झलकने लगती है।
महर्षि रमण कहते हैं —

आत्मा को खोजने की आवश्यकता नहीं है, केवल मन को शांत करने की आवश्यकता है; आत्मा स्वयं प्रकट हो जाएगी।”

 

विज्ञान और आत्मा

आधुनिक विज्ञान अब चेतना (Consciousness) के रहस्य को समझने का प्रयास कर रहा है।
क्वांटम भौतिकी के कई वैज्ञानिक, जैसे डेविड बोहम और दीपक चोपड़ा, मानते हैं कि चेतना ब्रह्मांड का मूल तत्व है।
इस प्रकार विज्ञान भी धीरे-धीरे स्वीकार कर रहा है कि मन और आत्मा एक ही चेतन स्रोत से जुड़े हैं।

 

आत्मा की अनुभूति के चरण

आत्मा का अनुभव कोई दार्शनिक कल्पना नहीं, बल्कि एक अनुभवात्मक प्रक्रिया है।
इसके पाँच प्रमुख चरण हैं:

1.      श्रवणसत्य का ज्ञान सुनना

2.      मननउस पर विचार करना

3.      निदिध्यासनध्यान में उसे आत्मसात करना

4.      समाधिमन का पूर्ण लय

5.      आत्मसाक्षात्कारआत्मा से एकात्मता

जब साधक इन चरणों से गुजरता है, तब मन आत्मा में विलीन हो जाता है और व्यक्ति को परम शांति प्राप्त होती है।

 

उपनिषदों में मन और आत्मा का संबंध

छांदोग्य उपनिषद् कहता है —

तत् त्वं असि” — तू वही है।
अर्थात्, जीव और ब्रह्म एक ही हैं, केवल मन के अज्ञान से वे अलग दिखाई देते हैं।

बृहदारण्यक उपनिषद् कहता है —

अहं ब्रह्मास्मि।” — मैं ही ब्रह्म हूँ।

यहाँ “अहं” मन का बोध कराता है और “ब्रह्म” आत्मा का। जब “अहं” का अहंकार मिट जाता है, तब मन और आत्मा एक हो जाते हैं।

 

भक्ति मार्ग में मन और आत्मा

भक्ति योग कहता है कि जब मन पूर्ण प्रेम से परमात्मा में लीन होता है, तब आत्मा की पहचान स्वतः हो जाती है।
मीरा, कबीर, तुलसी, और सूरदास जैसे संतों ने कहा —

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।”

जब मन आत्मा में समर्पित हो जाता है, तब भेद मिट जाता है — भक्त और भगवान एक हो जाते हैं।

 

निष्कर्ष

मन और आत्मा का संबंध अभिन्न है —
मन आत्मा का दर्पण है, आत्मा मन की साक्षी है।
मन के संयम से आत्मा का साक्षात्कार होता है, और मन के विकार से आत्मा ओझल हो जाती है।

मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य यही है —
अपने मन को शुद्ध, संयमित, और शांत करके आत्मा के सत्य स्वरूप का अनुभव करना।

जब मन शांत होता है, तब आत्मा बोलती है;
जब मन स्थिर होता है, तब आत्मा प्रकट होती है;
और जब मन मिट जाता है, तब केवल आत्मा शेष रहती है —
वही मुक्ति, वही मोक्ष, वही आनंद।

 

समापन श्लोक

यदा मनः प्रशान्तं भवति तदा आत्मा प्रकाशते।”
जब मन शांत होता है, तब आत्मा का प्रकाश प्रकट होता है।

 

Wednesday, January 5, 2022

मन में ईस्वर का नाम और बगल में छुरी ऐसे भी व्याख्या है.

दिलो में वही बसते है जिनके मन साफ़ होसुई में वही धागा प्रवेश करता है, जिसमे कोई गाठ नहीं हो.

 

सच्चे मन की व्याख्या उस धागा से कर सकते है, जिसमे कोई गाठ नहीं हो. बिलकुल सीधा साधा सरल सहज होने पर ही मन शांत और उत्साही होता है. जिसे किसी को भी एक नजर में अच्छा लगने लग जाता है. वो सबके दिलो पर राज करता है. सच्चा और सरल होना ये बहूत बड़ी बात है.

 

मन में ईस्वर का नाम और बगल में छुरी ऐसे भी व्याख्या है.

उन लोगो के लिए जो होते कुछ और है, पर दखते कुछ और ही. ऐसे लोग न जल्दी किसी के दिल में बसते है और नहीं समझ में आते है. ये कब क्या कर बैठेंगे. ऐसे लोगो के पास शक्ति अपार होती है. पर वो कभी भी सकारात्मक पहलू के लिए नहीं होते है. हमेशा कुछ न कुछ खुरापाती ही करते रहते है. ऐसे लोगो से बच कर रहे तो उतना ही अच्छा है.

 

मन के हारे हार और मन के जीते जित.

जिनको किसी से कुछ मिले नहीं तो भी खुश और कुछ मिले जाये तो भी खुश. संतुलित व्यक्ति सरल और सहज होते है. वो कुछ भी करते है भले उसमे कोई फायदा हो या न हो पर मन में आ गया तो वो कर गुजरते है. इससे मन को शांति और उत्साह महशुस होता है. अच्छा करने वाला अच्छाई के लिए ही जीते है. कुछ भी करते है. वो अच्छाई के लिए ही होता है. इसलिए ऐसे सरल व्यक्ति किसी के दिल में एक वर में बैठ जाते है. जिनका प्रसंसा और जिक्र हमेशा होता रहता है.

Friday, August 20, 2021

कल्पनाशील गुण सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के सोच समझ और मन की क्रियाओ पर पूर्ण आधारित होता है जैसा मन का भाव सोच समझ भी वैसा ही प्रभाव देता है

क्या कल्पनाशील एक सकारात्मक या नकारात्मक गुण है?

  

कल्पनाशील गुण सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के होते है। 

सोच समझ और मन की क्रियाओ पर पूर्ण आधारित होता है। जैसा मन का भाव होता है। सोच समझ भी वैसा ही प्रभाव देता है। जिसका परिणाम कल्पना पर पड़ता है। कल्पना आतंरिक मन का भाव होता है। जिसको बाहरी मन के भाव को कल्पना के माध्यम से अंतर्मन को संकेत देता है। कल्पना का प्रभाव बाहरी मन पर पड़ता है। कल्पना के अनुसार बाहरी मन कार्य करता है। कल्पना सकारात्मक हो रहा है या नकारात्मक मन के क्रियाओ पर आधारित होता है। मनुष्य बाहरी मन सचेत मन में रहता है। सचेत मन सक्रीय होता है। बाहर के समस्त घटनाओ का प्रभाव बाहरी सचेत मन पर पड़ता है। मनुष्य के जीवन में प्रभाव ज्ञान के अनुसार पड़ता है। जैसा मनुष्य का ज्ञान होता है, जो उसका बाहरी सचेत मन स्वीकार करता है, उसी के अनुरूप उसका भाव हो जाता है। समय के अनुसार सकारात्मक या नकारात्मक भाव दोनों हो सकता है। बाहरी सचेत मन के भाव से मन कार्य करता है। कल्पना गतिशील कार्य को बढ़ने का कार्य करता है। जब ब्यक्ति कल्पना करता है तो बाहरी मन का प्रभाव कल्पना पर भी पड़ता है। जिससे कल्पना में रुकावट या बारम्बार विषय का बदलना मन को न अच्छा लगनेवाला विषय सामने आना। इस प्रकार के बहूत से प्रभाव कल्पना में बारम्बार होता है। जो की नकारात्मक गुण है। कल्पना के दौरान हो रहे घटना से सचेत रहने वाला ब्यक्ति जिसके अन्दर ज्ञान होता है। क्या सही क्या गलत है? तो हो रहे घटना से सचेत रहकर घटना को देखते हुए आगे बढ़ता जाता है। उसे पता है क्या स्वीकार करना है। और क्या छोड़ते जाना है। तभी वो संतुलित और सकारात्मक कल्पना होता है। ऐसे ब्यक्ति के बाहरी घटना से मन को सचेत कर के रखते है। कल्पना को साफ और संतुलित रखने के लिए मन को संतुलित होना अति आवश्यक है। चाहे बाहरी मन हो या अंतर मन सक्रीय दोनों होते है, कार्य तभी सफल होता है जब बाहरी मन और अंतर मन एक जैसा होते है। तो उस कार्य में कोई रुकावट नहीं होता है। निरंतर चलता रहता है। अंतर्मन और बाहरी मन का असंतुलन कार्य में रुकावट पैदा करता है। कल्पना अंतर मन और बाहरी मन का संपर्क सूत्र जो सोच से उत्पन्न होता है। जिससे दोनों मन को नियंत्रित करने का प्रयाश जो क्रिया और घटना के अनुसार होता है। इसलिए ज्ञान के माध्यम से बाहरी मन को सचेत रखा जाता है। जिससे कल्पना में कोई रुकावट या बाधा न आये। ज्ञान से बाहरी मन को नियंत्रित किया जा सकता है। इसलिए मनुष्य को सदा ज्ञान के तरफ बढ़ना चाहिए। इस प्रकार से कल्पनाशील एक सकारात्मक और नकारात्मक दोनों गुण हो सकते है। 

Sunday, August 15, 2021

मन की इच्छाएँ के दौरान कल्पना में नकारात्मक भावना नहीं होना चाहिए नहीं तो मस्तिष्क में विकार आ सकता है

मन की इच्छाएँ


मनुष्य के सोच में बहुत सारी मन की इच्छाएँ होते है


मन की इच्छाएँ पल भर में बदलते रहते है। एक पल में एक तो दूसरे पल में दूसरा इच्छा उत्पन्न होता है। जब एक इच्छा आता है। तो दूसरा इच्छा चला जाता है। क्या ये सब ठीक है? मनो जैसे मनुष्य इछाओ का साम्राज्य है। जब मर्जी जो इच्छा रख लिए। ये कौन सी बात हो गई? भाई जो चाहो वो सोच लो। दूसरे का क्या जाता है। सबकी अपनी मर्जी है। क्यों भाई अपनी मर्जी है न? इसमें तो किसी का कुछ नहीं जाता है। तो सवाल ये है, की इच्छा फिर बना ही किस लिए है? फिर तो ये सब व्यर्थ है। ये तो कोई काम का नहीं है। नहीं भाई ऐसा नही है। इच्छा नहीं इच्छा शक्ति होनी चाहिए। ताकि सब अपनी इच्छा पर डटे रहे और उसे व्यर्थ न जाने दे। वही सब कुछ करता है। इच्छा नहीं तो मनुष्य कुछ नहीं। इच्छा को नियंत्रित करे। उस दिशा में कार्य करे। वही सकारात्मक इच्छा है।


मन की इच्छाएँ के लिए सोच समझ अच्छी होनी चाहिए


मन की इच्छाएँ मे किसी का किसी प्रकार से कोई नुकसान न हो तो ही इच्छा कारगर है। कुछ भी सोचे कुछ भी करे ऐसा नहीं है। बिलकुल भी कभी कोई गलत इच्छा नही रखे वो टिक नहीं पायेगा। उस तरफ जा भी नहीं पाएंगे। क्योंकि अपने पास ज्ञान है। मान लीजिये की जो कर रहे है। काम काज या कोई अच्छा कार्य करते है। मन भी अच्छे से लगता है। सक्रीय कार्य को सफलता पूर्वक पूरा कर लेते है। यही सकारात्मक इच्छा शक्ति है। 


मन की इच्छाएँ में इच्छाशक्ति बहुत महत्वपूर्ण ज्ञान है 


मन की इच्छाएँ मनुस्य को अपने जीवनपथ पर आगे बढ़ने के लिए है। इच्छाशक्ति इतना आसानी से नहीं प्राप्त होता है। बहुत सरे इच्छाओ को पाल लेने से और एक के बाद दूसरा इच्छा कर लेने से तो कोई काम नहीं बनेगा। इच्छा पूर्ति लिए जीवन में सिद्धांत बनाना पड़ता है। अपनी इच्छाओ पर नियंत्रण पाना होता है। जिससे सकारात्मक इच्छा सोच सके कल्पना कर सके, विचार कर सके, कल्पना कर सके, बहुत सरे इच्छाओ के मिश्रण से अंतर्मन किसी भी संभावित नतीजे तक नहीं पहुंच पायेगा। किसी भी काम को पूरा करने में मन नहीं लगेगा। कार्य में सफलता मिल नहीं पायेगा। हो सकता है बहूर सरे इच्छाओ में सकारात्मक इच्छा और नकारात्मक इच्छा हो। इच्छाओ के बवंडर में मस्तिष्क में विकार भी आ सकता है। जिससे वविक्छिप्तता मन मे फ़ैल सकता है। जो की बिलकुल भी ठीक नहीं है।


मन की इच्छाएँ को जगाने के लिए मन के कल्पना में कोई एक चित्र बनाये 


मन की इच्छाएँ को बनाये रखने के लिए कल्पना मे सब कुछ संतुलित और संगठित होन चाहिए। मन के भावना सकारात्मक होना बहुत जरूरी है। नकारात्मक भावना अनिच्छा को उत्पन्न करता है। नकारात्मक प्रभाव से मन में गुस्सा और तृस्ना सवार हो जाता है। बात विचार प्रभावशाली नहीं रहता है। इसलिए मन की इच्छा सकारात्मक ही होना चाइये। 


मन की इच्छाएँ और कल्पना के दौरान किसी भी प्रकार का नकारात्मक भावना नहीं होना चाहिए


मन की इच्छाएँ में सोच कल्पनातीत भी नही होना चाहिए। ऐसा भी हो सकता है की कल्पना पुरा ही नहीं हो सके। ऐसा होने से भी मस्तिष्क में विकार आ सकता है। जिसका सीधे प्रभाव ह्रदय और मन पर पड़ता है। ऐसी हालत में भी कुछ नहीं कर पाएंगे। मन कल्पनातीत में बेलगाम घोड़ा हो जाता है। स्वियं नियंत्रण में करना बहुत मुश्किल होता है। ऐसे मनुष्य आगे चलकर आलसी भी हो सकते है।


मन की इच्छाएँ से मन में सकारात्मक सोच समझ और कल्पना होने से विवेक बुद्धि संगठित रहता है 


मन की इच्छाएँ संतुलित और कल्पना के दौरान जो जरूरी विषय वस्तु है। उसपर ध्यान बराबर बना रहता है। यहाँ पर भी मन पर पूरा नियंत्रण होना चाहिए। संभावित विषय बस्तु को मन के कल्पना में निरंतर सकारात्मक बना रहे। मन उस विषय और कार्य में भी सकारात्मक कार्य करते रहे।  ऐसा होने से मन अपने सकारात्मक काम काज विषय बस्तु में कार्यरत रहेगा। तभी मन में किया गया इच्छा की कल्पना सकारात्मक बनकर इच्छा शक्ति बनेगा। उस कार्य या विषय में सफलता मिलेगा।


 

 

 

 

Friday, August 13, 2021

व्यक्तित्व प्रेरणा में मन विवेक बुद्धि सोच समझ सहज बोध एकाग्रता चिंतन मनन कल्पना सबका उन्नत होना जरूरी होता है

प्रेरणा


प्रेरणा स्त्रोत

जीवन के  उन्नति के पीछे किसी किसी का बहुत बड़ा हाथ होता है।  संघर्ष हर किसी के जीवम में होता ही है। सही दिशा दिखाने वाला ही प्रेरणा स्त्रोत के महत्त्व बनता है।  चाहे विद्यलय के पढाई लिखाई में किसी अच्छे अध्यापक का प्रेरणा स्त्रोत मिले। या किसी ऐसे गुरु का जो ज्ञान के माध्यम में प्रेरणा स्त्रोत बन जाए। किसी का प्रेरणा बहुत बड़ा ज्ञान देता है।  जिसके अपने जीवन में किसी से अच्छे जानकर से प्रेरणा मिलता है।  तो उससे अपना जीवन सफल हो जाता है


व्यक्तित्व प्रेरणा 

किसी भी ब्यक्ति का ज्ञान जन्म के साथ नहीं आता है।  जीवन के हर पहलू में ज्ञान हासिल करना ही पड़ता है।  जीवन में परिपक़्वता सिर्फ किताबी ज्ञान से नहीं मिलता है। किताबी ज्ञान के साथ मन, विवेक, बुद्धि, सोच, समझ, सहज बोध, एकाग्रता, चिंतन, मनन, कल्पना, सबका उन्नत होना जरूरी होता है।  जिस क्षेत्र से जो जुड़े होते है। उस क्षेत्र के दूसरे लोग जो अपने ब्यवसाय, कार्य क्षेत्र में जो सफल या बहुत सफल होते है।  उनसे भी ज्ञान लेना पड़ता है।  उनके कार्य क्षेत्र को समझा जाता है। उनसे मिलकर उनके ज्ञान और उपलब्धि को सुना और समझा जाता है।  उनके बात विचार को ज्ञान समझकर  प्रेरणा स्त्रोत मानकर आगे बढ़ा जाता है।  प्रेरणा स्त्रोत को सिर्फ ज्ञान ही नहीं समझा जाता है।  प्रेरणा स्त्रोत को आत्म मनन करके जीवन में स्थापित किया जाता है।  प्रेरणा स्त्रोत को महत्वपूर्ण ज्ञान समझकर अपने क्षेत्र में आगे बढ़ा जाता है। तब जीवन में सफलता प्राप्त करने का माध्यम प्रेरणा स्त्रोत होता है।

Tuesday, August 10, 2021

ज्यादाकर मन में समय के नकारात्मक भाव ही नजर आते हैं कुछ ही बाते जो अच्छे होते हैं वो बाते सकारात्मक होते है बारंबर याद करने को मन करता है

जिन चीजों से मुझे आप से नफरत है


जब आपके मन में झाकते है तो बहुत कुछ जीवन में समझ में आने लग जाता है

जब अपने मन में झाकते है। बहुत कुछ समझ में आने लग जाता है।  ज्यादाकर मन में समय के नकारात्मक भाव ही नजर आते हैं। कुछ ही बात जो अच्छे होते हैं। जो बाते सकारात्मक होते है। उन्हें बारंबर याद करने को मन करता है। जो बात मन को अच्छे नहीं लगते हैं। उन बातो से किनारा करना कभी कभी बहुत मुश्किल हो जाता है।  तब गुसा भी ऐसा ही आता है।  जब कुछ पुरानी बात मन को झकझोर देता है।  तब नकारात्मक बाते ही मन में उठने लगते हैं।  ऐसा मन का प्रबृत्ति होता है।

 

वास्तविक जीवन के आयाम में सकारात्मक बातो के लिए कम जगह होता है

अक्सर जीवन के आयाम में सकारात्मक बातो के लिए कम जगह होता है। इसके पीछे कार ये है की ज्यदाकर मिलाने जुलने वाले लोगो का भावना कोई कोई इच्छा से जुड़ा होता है। ज्यादाकर लोगो की इच्छा नकारात्मक ही होते है।  जिसका प्रभाव दोनों के मन पर पड़ता है। जिसके कार बात सुनाने वाला और बात कहने वाला दोनों के मन पर नकारात्मक इच्छा का प्रभाव पड़ता है।  इसलिए कल्पना के दौरान या कोई विशेष कार्य के लिए कुछ सोचते है। तो उससे जुड़ा हुआ भावना चरितार्थ होता है। इस प्रकार के जो नकारात्मक बाते जब मन में उठाते है। तो गुस्सा भी बहुत आता है। साथ में अपने सोच और कल्पना पर अपना प्रभाव डालता है।

 

जीवन में उन्नति के लिए प्रबृत्ति सकारात्मक होना बहुत जरूरी है

जीवन की प्रबृत्ति सकारात्मक होना बहुत जरूरी है।  वास्तव में सकारात्मक सोच में स्वयं के इच्छा के लिए कोई जगह नहीं होता है यदि स्वयं के लिए कुछ  सोचते है। वह सोच के भावना में या कल्पना में लालच भी आता है। जो की एक निम्न प्रबृत्ति है। जिससे स्वयं के इच्छा  कुछ सोचना या कल्पना करना पूरी तरह से सार्थक नहीं होता है।  इसलिए सोच या कल्पना में कुछ प्राप्त करना चाहते है। तो कल्पना में जिस विषय पर सोच रहे है। मन का झुकाव उसी विषय वस्तु पर होना चाहिये। जिससे उस विषय वस्तु के कार्य में पूरा सफलता मिले। जब वह कार्य सफल हो जाता है। तब उस कार्य के परिणाम से फायदा मिलता है।  वही वास्तविक सफलता होता है। इसलिए कभी भी सोच और कल्पना में अपनी इच्छा को उजागर नही होने देना चाहिए।   

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