अनुपस्थित मन
कोई खालीपन नहीं है। वह एक ऐसा कक्ष है जिसमें हम हैं, पर हमारी उपस्थिति का कोई प्रमाण नहीं मिलता। जैसे कोई दीपक जल रहा हो, पर उसका प्रकाश दीवारों तक न पहुँच पाए। अनुपस्थित मन वह अवस्था है जहाँ शरीर समय में मौजूद रहता है, पर चेतना कहीं और भटकती रहती है—स्मृतियों में, कल्पनाओं में, आशंकाओं में या उन संभावनाओं में जो कभी घटित ही नहीं हुईं।
मनुष्य का मन स्वभावतः चंचल है, पर जब यह चंचलता गहराकर अनुपस्थिति में बदल जाती है, तब जीवन का अनुभव बदलने लगता है। आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, हाथ काम करते हैं, पर भीतर का मन जैसे छुट्टी पर चला गया हो। यह अनुपस्थिति कभी थकान से जन्म लेती है, कभी आघात से, कभी निरंतर दबाव से, और कभी केवल इसलिए कि मन ने वास्तविकता से एक अस्थायी अवकाश ले लिया हो।
अनुपस्थित मन का पहला संकेत है—यांत्रिकता। व्यक्ति अपने दैनिक कार्य करता है, पर उसमें स्वाद नहीं होता। भोजन का स्वाद जीभ पहचानती है, पर मन नहीं। शब्द सुने जाते हैं, पर अर्थ भीतर उतरता नहीं। किसी के साथ बैठकर हँसते हुए भी भीतर एक दूरी बनी रहती है। यह दूरी बाहरी नहीं, आंतरिक होती है—अपने ही अनुभवों से दूरी।
कभी-कभी अनुपस्थित मन सुरक्षा कवच बन जाता है। जब यथार्थ बहुत तीखा हो, बहुत पीड़ादायक हो, तब मन स्वयं को बचाने के लिए पीछे हट जाता है। जैसे आंधी में कोई कछुआ अपने खोल में सिमट जाए। उस क्षण अनुपस्थिति पलायन नहीं, बल्कि आत्म-रक्षा होती है। पर समस्या तब शुरू होती है जब यह अस्थायी रक्षा स्थायी आदत बन जाए।
अनुपस्थित मन समय को भी बदल देता है। घड़ी की सुइयाँ चलती रहती हैं, पर अनुभव ठहर जाता है। दिन बीतते हैं, पर स्मृतियाँ नहीं बनतीं। पीछे मुड़कर देखने पर लगता है—“पता नहीं यह साल कैसे निकल गया।” वास्तव में साल नहीं निकला, मन अनुपस्थित था। जहाँ मन नहीं होता, वहाँ जीवन दर्ज नहीं होता।
शिक्षा के कक्षों में, दफ्तरों में, घरों में—अनुपस्थित मन की चुपचाप उपस्थिति देखी जा सकती है। छात्र किताब के पन्ने पलटता है, पर विचार कहीं और उलझे होते हैं। कर्मचारी कंप्यूटर स्क्रीन पर देखता है, पर भीतर की स्क्रीन पर किसी और दृश्य का प्रसारण चल रहा होता है। माता-पिता बच्चों के साथ बैठकर भी अपने फोन या चिंताओं में डूबे रहते हैं। यह सामूहिक अनुपस्थिति आधुनिक जीवन की एक मौन बीमारी है।
तकनीक ने अनुपस्थित मन को नया विस्तार दिया है। सूचनाओं की बाढ़ ने मन को वर्तमान से खींचकर अनेक दिशाओं में बाँट दिया है। हर क्षण कहीं और होने की संभावना मौजूद है। परिणामस्वरूप, यहाँ होना कठिन होता जा रहा है। मन लगातार अगली सूचना, अगले संदेश, अगले दृश्य की ओर उछलता रहता है। यह उछाल धीरे-धीरे अनुपस्थिति में बदल जाता है।
अनुपस्थित मन संबंधों को भी प्रभावित करता है। संबंध उपस्थिति से बनते हैं—सुनने की उपस्थिति, समझने की उपस्थिति, साथ होने की उपस्थिति। जब मन अनुपस्थित होता है, तो शब्दों के बीच की रिक्ति बढ़ने लगती है। सामने वाला बोलता है, पर उसे सुना नहीं जाता। उत्तर दिया जाता है, पर वह प्रतिक्रिया नहीं, केवल प्रतिक्रिया का अभिनय होता है। ऐसे संबंधों में धीरे-धीरे एक ठंडापन भरने लगता है।
यह अनुपस्थिति हमेशा नकारात्मक नहीं होती। कभी-कभी रचनात्मकता भी इसी खालीपन से जन्म लेती है। कवि का मन वास्तविकता से हटकर किसी अनदेखे लोक में भटकता है। कलाकार रंगों में खो जाता है। वैज्ञानिक किसी समस्या पर इतना डूब जाता है कि आसपास की दुनिया ओझल हो जाती है। यह अनुपस्थिति एकाग्रता की दूसरी अवस्था हो सकती है—जहाँ मन बाहर नहीं, भीतर केंद्रित होता है।
पर यह भेद समझना आवश्यक है कि कौन-सी अनुपस्थिति सृजनात्मक है और कौन-सी विघटनकारी। सृजनात्मक अनुपस्थिति ऊर्जा देती है, लौटने पर व्यक्ति अधिक सजग, अधिक जीवंत महसूस करता है। विघटनकारी अनुपस्थिति व्यक्ति को थका देती है, खाली कर देती है। लौटने पर भी कुछ नहीं मिलता—न स्पष्टता, न ताजगी।
अनुपस्थित मन अक्सर दबे हुए भावों का संकेत भी होता है। जो कहा नहीं गया, जो जिया नहीं गया, वह मन को वर्तमान से दूर खींच ले जाता है। दुख, क्रोध, अपराधबोध—ये सभी मन को भीतर ही भीतर व्यस्त रखते हैं। बाहर का संसार चलता रहता है, पर भीतर एक अलग कथा चल रही होती है। इस आंतरिक कथा की उपेक्षा मन को और अधिक अनुपस्थित बना देती है।
बचपन में अनुपस्थित मन का अनुभव अलग होता है। बच्चा खेलते-खेलते किसी कल्पना में खो जाता है। यह अनुपस्थिति सहज और सुंदर होती है। वह लौटता है तो हँसता हुआ, ऊर्जा से भरा हुआ। पर यदि बच्चे का मन लगातार अनुपस्थित रहने लगे—तो यह संकेत हो सकता है कि वह किसी दबाव, डर या उपेक्षा से जूझ रहा है।
वृद्धावस्था में अनुपस्थित मन स्मृतियों से जुड़ जाता है। वर्तमान धीमा पड़ जाता है, अतीत अधिक जीवंत हो उठता है। व्यक्ति वर्तमान में बैठा होता है, पर मन दशकों पीछे घूम रहा होता है। यह भी अनुपस्थिति ही है, पर इसमें एक मिठास, एक करुणा भी हो सकती है।
अनुपस्थित मन का सबसे बड़ा खतरा यह है कि व्यक्ति स्वयं से कटने लगता है। वह अपने ही अनुभवों का साक्षी नहीं रह पाता। जीवन घटित होता रहता है, पर वह केवल दर्शक बन जाता है—वह भी बिना ध्यान दिए। इस अवस्था में आनंद भी फीका लगता है और दुख भी स्पष्ट नहीं होता। सब कुछ एक धुंध में लिपटा रहता है।
इस धुंध से बाहर आने का मार्ग भी मन के भीतर से ही निकलता है। पहला कदम है—स्वीकृति। यह मान लेना कि मेरा मन अभी यहाँ नहीं है। इसे दोष नहीं, संकेत की तरह देखना। दूसरा कदम है—धीरे-धीरे उपस्थिति का अभ्यास। श्वास को महसूस करना, किसी एक कार्य को पूरे ध्यान से करना, किसी व्यक्ति की बात को बिना बीच में काटे सुनना। ये छोटे-छोटे प्रयास मन को लौटने का निमंत्रण देते हैं।
प्रकृति अनुपस्थित मन को बुलाने का सबसे सहज माध्यम है। पेड़ों के बीच चलना, आकाश को देखना, नदी की धारा सुनना—ये सब मन को वर्तमान में टिकने में सहायता करते हैं। प्रकृति की लय मन की बिखरी हुई लयों को धीरे-धीरे समेट लेती है।
अनुपस्थित मन को पूरी तरह समाप्त करना न संभव है, न आवश्यक। यह मनुष्य होने का ही एक पक्ष है। प्रश्न केवल इतना है कि हम उसमें कितने समय तक रहते हैं और उससे कितनी सजगता से लौटते हैं। जब मन अनुपस्थित हो, तो उसे कठोरता से नहीं, कोमलता से पुकारना चाहिए।
अंततः, उपस्थिति कोई स्थायी अवस्था नहीं, बल्कि निरंतर अभ्यास है। हर क्षण मन भटक सकता है, और हर क्षण उसे वापस लाया जा सकता है। अनुपस्थित मन हमें यह सिखाता है कि उपस्थिति कितनी मूल्यवान है। जैसे अँधेरे के बिना प्रकाश का अर्थ नहीं, वैसे ही अनुपस्थिति के बिना उपस्थिति का अनुभव अधूरा है।
अनुपस्थित मन एक प्रश्न है—हम कितनी बार वास्तव में यहाँ होते हैं? और जब नहीं होते, तो क्या हम लौटने का रास्ता जानते हैं? यही प्रश्न हमें मनुष्य बनाता है, सजग बनाता है, और जीवन को केवल जीने से आगे बढ़ाकर अनुभव करने की क्षमता देता है।
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