Monday, December 1, 2025

अरमान की चीता जलते हुए

 


अरमान की चीता जलते हुए 

रात की सांझ उतरते ही,
दिल की दहलीज़ पर कोई दस्तक हुई थी,
वो शायद मेरे अरमान थे,
जो ज़िंदगी से अपनी हक़ की भीख माँगने आए थे।

मैंने पलटकर देखा तो
मुक्ति की लौ-सा एक मौन खड़ा था,
हवा में राख उछलती थी
और सपनों का क़ाफ़िला
चुपचाप धुआँ होता जा रहा था।

कहीं अहसास था—
कि कुछ ख्वाब उम्रभर अधूरे रहते हैं,
कहीं दर्द था—
कि जो संजोकर रखा, वही हाथों में जलकर राख बन जाए।

अरमान की चिता जलते हुए
एक-एक उम्मीद की लपट
मेरी पलकों के सामने नाचती रही,
जैसे कह रही हो—
"हर इच्छा पूरी नहीं होती,
कुछ की किस्मत में सिर्फ अग्नि की पूजा लिखी जाती है।"

मैंने उन जलती चिताओं में
अपनी ही कहानियों की गंध महसूस की,
किसी रिश्ते की टूटन,
किसी सपने की हार,
किसी मंज़िल की अधूरी प्यास।

लपटों के बीच
कुछ सवाल अनाथ खड़े थे—
"क्या हमने सच में हार मानी थी?
या बस वक्त ने हमसे हमारे हिस्से की खुशी छीन ली?"

हवा में उठती राख
जैसे हर जले हुए अरमान की प्रतिज्ञा थी,
कि दर्द भले ही सुलगता रहे,
पर दिल की आग कभी बुझती नहीं,
वो बस रूप बदलती है—
कभी उम्मीद बनती है, कभी ताक़त,
और कभी नई कहानी का जन्म।

जब अंतिम चिंगारी बुझने को आई,
तो लगा जैसे—
अरमानों की उस चिता से
एक छोटी-सी कोंपल जन्म ले रही हो,
जो कह रही थी—
"राख के बाद भी जीवन है,
हार के बाद भी राह है,
और जल चुके सपनों के बाद भी
नए अरमान पनपते हैं।"

सांझ की परछाइयों में भीगा हुआ
एक कोना मेरे दिल का चुप था,
वहीं कहीं पुरानी खिड़की के पास
कुछ अरमान सिर झुकाए बैठे थे,
जैसे अपनी ही अधूरी किस्मत पर
खुद से सवाल करते हों।

धीरे-धीरे हवा चली,
और उन अधूरे ख्वाबों की पोटली
अपने आप खुलती गई,
जैसे यादें किसी अनचाहे मेहमान की तरह
दरवाज़ा ठेलकर भीतर आ गई हों।

एक–एक अरमान ने
मेरी पलकों के सामने अपना चेहरा खोला,
किसी में बचपन का मासूम यकीन था,
किसी में जवानी की बेपरवाह ज़िद,
किसी में मोहब्बत की अनकही प्यास,
और किसी में ज़िंदगी के लिये किया गया
वो संघर्ष…
जिसे दुनिया ने कभी देखा ही नहीं।

मैंने देखा—
सपनों की यह भीड़
अब थकी हुई थी,
उनकी आँखों में आग का डर,
और दिल में अधूरेपन की चोट थी।
जैसे वे खुद कह रहे हों—
"चलो, अब हमें मुक्त कर दो…
हम इतने टूट चुके हैं
कि फिर खड़े होने की हिम्मत भी नहीं बची।"

और सच कहूँ—
शायद मैं भी अब
उनके बोझ को ढोने की ताक़त नहीं रखता था।
वक्त ने कंधों को थका दिया था,
और उम्मीद की रौशनी
बहुत दिनों से किसी अनजानी कैद में थी।

इसलिए मैंने
अपने मन के श्मशान घाट में
धीरे से एक आग जलाई—
धीमी, शांत,
जैसे किसी आख़िरी विदाई की लौ।

और फिर…
अरमान की चिता जलते हुए
अजब-सी खामोशी फैल गई।
ऐसा लगा
जैसे समय भी रुक गया हो।

लपटें उठीं—
धीरे-धीरे,
पहले संकोच से,
फिर गर्जना की तरह।
हर चिंगारी
एक कहानी थी,
हर लपट
एक टूटे हुए ख्वाब की आख़िरी चीख।

कोई अरमान कह रहा था—
"मुझे तो बस एक मौका चाहिए था…"
कोई पुकार रहा था—
"क्यों मुझे आधे रास्ते में छोड़ दिया?"
और कुछ…
बस गुमसुम थे,
जैसे समझ चुके हों
कि कुछ सफ़र तकदीर तय करती है,
इंसान नहीं।

मेरी आँखें भीग गईं।
वह आग
सिर्फ चिता नहीं थी,
वह मेरा अतीत था,
मेरी नाकामियाँ,
मेरी किस्मत की चोटें,
मेरे उन फैसलों की राख,
जिन्हें आज तक मैं सही या ग़लत तय नहीं कर पाया।

पर एक अजीब बात हुई—
जैसे-जैसे आग बढ़ती गई,
दिल का बोझ हल्का होता गया।
जली हुई लकड़ियों की परतों में से
एक अजीब-सा सुकून निकलता गया,
जैसे कोई कह रहा हो—
"जो खत्म हो गया,
उस पर रोने से क्या हासिल?
अब नयी राहें खोज…
नये ख्वाब जन्म दे।"

चिता की आग
जब अपने शिखर पर थी,
आसमाँ भी लाल हो उठा।
ऐसा लगा
जैसे बादल भी
इस विदाई में शामिल हो गए हों।
हवा में फैलती राख
किसी मुक्ति-मंत्र की तरह थी।

और फिर…
जब आग शांत होने लगी,
तो राख की गोद में
एक छोटी-सी चमक दिखी—
बहुत हल्की-सी,
पर बिल्कुल साफ़।
जैसे किसी नए अरमान का बीज
इस राख से ही उग रहा हो।

तभी समझ आया—
अरमानों की चिता जलते हुए
दरअसल मौत नहीं थी,
वह एक पुनर्जन्म था।
पुराने सपने भले राख हो गए,
पर उस राख से
नये सपनों की मिट्टी बन रही थी।
दिल के ज़ख्म
अब भी थे,
पर उनमें से
नई शक्ति की एक नन्ही कोंपल फूट रही थी।

मैंने राख को माथे से छुआ,
और महसूस किया—
हार भी कभी-कभी
सबसे बड़ी जीत का रास्ता बनती है।
अधूरे अरमान
किस्मत के सामने झुकते हैं,
पर इंसान
अपने हौसलों के सामने नहीं झुकता।

आज भी
रात की खामोशी में
जब हवा चलती है,
तो लगता है
जैसे वही राख उड़कर
मेरे दिल को छू जाती है
और कहती है—
"मत डर…
जो जल चुका,
वह खत्म नहीं,
वह बस नया रूप ले चुका है।"

शाम का सूरज आधा डूब चुका था,
उसकी अंतिम किरणें
मेरे कमरे की दीवारों पर
टूटे हुए सपनों की तरह बिखर रही थीं।
हवा धीमी थी,
पर उसके भीतर
अधूरे अरमानों की थरथराहट छुपी थी,
जैसे समय ने खुद आकर
मेरे सीने पर बोझ रख दिया हो।

मेरे भीतर एक शोकसभा-सी बैठी थी—
कुर्सियाँ खाली,
आँखें नम,
और दिल के कोनों में
टूटे वादों का धुआँ उठता हुआ।
हर खामोशी एक कहानी थी,
हर सांस एक स्वीकारोक्ति,
और हर धड़कन
उस याद की सजा थी
जिससे आज भी छुटकारा नहीं मिला।

मैंने चारों तरफ देखा—
सपनों के वे धूल भरे संदूक,
इच्छाओं की वे पुरानी परतें,
अनकहे शब्दों का वह बंद दरवाज़ा,
और सबसे दर्दनाक—
वो अधूरी उम्मीदें
जो अब भी मेरी आँखों में
जीने की गुहार लगा रही थीं।

दिल ने कहा—
"अब बहुत हुआ।
इन अरमानों को इस तरह
न घसीटता रह।
जो टूट चुका है,
उसे दफना दे,
ताकि तू खुद फिर ज़िंदा हो सके।"

और मैं…
शायद पहली बार
अपने ही दिल की बात मान गया।

मैंने अपने मन के श्मशान घाट की ओर
एक धीमी-सी चहलकदमी की—
वह कोई जगह नहीं थी,
बल्कि एक अवस्था थी,
जहाँ इंसान
अपने टूटे सपनों की अंतिम यात्रा निकालता है।
जहाँ उम्मीदें कफ़न पहनती हैं
और इच्छाएँ
अपने ही धुँधले भविष्य को
आँखें मूँद कर सुपुर्द-ए-ख़ाक कर देती हैं।

मैंने उन अरमानों को
अपने हाथों में उठाया—
वे हल्के थे,
पर उनकी पीड़ा
मेरी हड्डियों तक उतर गई थी।
कोई अरमान
माँ के सपने जैसा कोमल था,
कोई पिता की उम्मीद जैसा कठोर,
कोई मित्रता की निष्ठा जैसा स्थायी,
और एक…
जो प्रेम का था—
वह सबसे भारी था,
जिसके टूटने की आवाज़
अब भी मेरी नींद में
चीख की तरह गूँज जाती है।

मैंने उन सबको
एक-एक करके
चिता पर सजा दिया।
हर अरमान को रखते समय
दिल एक बार टूटता,
सीना एक बार भर्रा जाता,
और आँखें
एक बार फिर गीली हो जातीं।

चिता तैयार थी,
अरमान थक चुके थे,
और मैं…
शायद सबसे ज्यादा टूटा हुआ था।

धीरे से आग लगाई—
एक छोटी-सी चिंगारी से।
पर जैसे ही आग ने
पहले अरमान को छुआ,
लपटें दहाड़ उठीं—
जैसे सदियों से घुटा हुआ दर्द
आज खुलकर सामने आ गया हो।

लपटें बढ़ती गईं।
उनमें एक-एक कर
सारे अरमान जलने लगे।
किसी की चीख थी—
"मैं पूरा हो सकता था!"
किसी का रोना—
"मुझे बस थोड़ा समय चाहिए था…"
किसी का सवाल—
"क्यों छोड़ दिया मुझे आधे सफर में?"
और कुछ…
बस मौन थे—
वे इतने टूट चुके थे
कि अब आवाज़ भी उनमें नहीं बची थी।

चिता की हर आग
मेरे अतीत का एक अध्याय थी।
मैंने देखा—
मेरे बचपन का आत्मविश्वास
धीरे-धीरे धुआँ बनकर उड़ रहा था।
जवानी की बेपरवाह हिम्मत
सुर्ख अंगारों की तरह चटक रही थी।
मेरी अधूरी मोहब्बत
लपटों में तड़प रही थी—
आखिर की चीख में
एक ऐसी पीड़ा थी
जिसे शब्द कभी नहीं पकड़ पाएंगे।

आग बढ़ती गई—
धीमी,
फिर भड़कती हुई,
फिर अपने चरम पर।
उसकी लपटें
आसमान को छू रही थीं—
जैसे एक इंसान का दर्द
कुदरत तक शिकायत ले गया हो।

राख उड़ने लगी।
हवा भावुक हो चली,
अचानक तेज़ होकर
राख को मेरी आँखों में ले आई।
मैंने उन्हें पोंछा नहीं—
क्योंकि वह राख
मेरी अपनी ही हार थी,
मेरे अपने ही टूटे हुए चरण थे,
जिन्हें मैं अंतिम बार
महसूस करना चाहता था।

घंटों बीते—
आग शांत होने लगी।
लपटें थक गईं,
अरमान मिट गए,
और चिता—
धधकते हुए जीवन का
अंतिम पृष्ठ बनकर
ठंडी पड़ने लगी।

मैं राख के पास बैठ गया।
खामोशी इतनी गहरी थी
कि अपनी ही सांसें सुनाई दे रही थीं।
वह क्षण
मेरे जीवन का सबसे शांत,
सबसे पीड़ादायक
और सबसे सत्य क्षण था।

मैंने हाथ बढ़ाया,
एक मुट्ठी राख उठाई,
और वह मेरे हाथों से फिसलकर गिर गई—
जैसे कह रही हो—
"तुझे अब हमें छोड़ना ही होगा।"

और अचानक…
राख के भीतर
एक हल्की-सी चमक दिखाई दी।
बहुत छोटी,
बहुत कोमल,
जैसे किसी नये सपने का
पहला दिल-धड़कन।

तभी समझ आया—
अरमानों की चिता
दरअसल अंत नहीं थी,
वह शुरुआत थी।
वह एक संस्कार था—
जहाँ पुराना जलकर खत्म होता है
ताकि नई संभावना जन्म ले सके।

मेरे टूटे हुए दिल की राख से
एक नई चाहत उगी,
मेरी बदली हुई सांसों में
एक नया हौसला आया।
वह नन्ही चमक
धीरे-धीरे बढ़ने लगी,
जैसे कह रही हो—
"मैं नया सपना हूँ।
मुझे जीने का हक
तुने आग की लौ से खरीदा है।
अब मुझे मत छोड़ना।"

मैं उठ खड़ा हुआ।
राख का एक कण
मेरी हथेली पर चिपक गया—
और मैं समझ गया
कि टूटे अरमानों का
हर कण
अब मेरी नई शक्ति बनेगा।

मैं चला…
धीरे-धीरे,
पर पहले से हल्का,
पहले से समझदार,
पहले से ज्यादा ज़िंदा।

क्योंकि—
जो अरमान जलते हैं,
वह खत्म नहीं होते।
वे राख बनकर
हौंसलों की मिट्टी में मिल जाते हैं,
और वहीं से
एक नई सुबह,
एक नया सपना,
और एक नया इंसान जन्म लेता है।


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