“मन
और आत्मा का संबंध”  अत्यंत
गूढ़, दार्शनिक और
आध्यात्मिक महत्व जिसमें मन और आत्मा के स्वरूप, उनके परस्पर संबंध, योग और दर्शन के दृष्टिकोण, तथा आधुनिक मनोविज्ञान के संदर्भों का
भी समावेश है।
मन और आत्मा का संबंध
(एक गहन दार्शनिक अध्ययन)
प्रस्तावना
मनुष्य
सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी है। उसके भीतर चिंतन, विवेक, भावना, संकल्प, और आत्मबोध की अनोखी शक्ति है। यह शक्ति
उसके "मन" और "आत्मा" से निर्मित होती है। जहाँ आत्मा शाश्वत,
अमर और चेतन सत्ता है, वहीं मन परिवर्तनशील, चंचल और अनुभवशील तत्व है। मन आत्मा का
उपकरण है, माध्यम है, और आत्मा के अनुभव का दर्पण है। मन के
माध्यम से ही आत्मा संसार से जुड़ती है और मन के नियंत्रण से ही आत्मा अपने
वास्तविक स्वरूप — परमात्मा — की प्राप्ति कर सकती है।
आत्मा का स्वरूप
·        
आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है।
·        
आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है।
·        
वह सर्वव्यापक, चेतन और प्रकाशस्वरूप है।
·        
आत्मा शरीर, इंद्रिय, मन, बुद्धि से भिन्न है।
कठोपनिषद् में कहा गया है –
मन का स्वरूप
1.     
मन (सोचने और कल्पना करने वाला)
2.     
बुद्धि (निर्णय करने वाली शक्ति)
3.     
चित्त (स्मृति और अनुभव का संग्रह)
4.     
अहंकार (स्वत्व की भावना)
मन
का कार्य है —
·        
अनुभव
करना
·        
सोच-विचार
करना
·        
कल्पना
करना
·        
निर्णय
में सहायता देना
·        
संकल्प
और विकल्प बनाना
गीता
में कहा गया है —
मन और आत्मा का संबंध
मन
और आत्मा का संबंध वैसा ही है जैसा दर्पण
और सूर्य का। आत्मा सूर्य की तरह स्थिर और प्रकाशमान है, जबकि मन दर्पण की तरह उसका प्रतिबिंब
दिखाता है। जब दर्पण स्वच्छ होता है, तब आत्मा का प्रकाश स्पष्ट दिखाई देता है; जब मन मलिन होता है, तब आत्मा का प्रकाश धूमिल पड़ जाता है।
इस
प्रकार मन आत्मा का माध्यम है। आत्मा स्वयं कुछ नहीं करती, परंतु मन के माध्यम से कार्य का अनुभव
करती है।
वेदांत दृष्टिकोण से मन-आत्मा संबंध
·        
जब
मन बाह्य विषयों में रमता है, तो
आत्मा अपने सच्चे स्वरूप को भूल जाती है।
·        
जब
मन भीतर की ओर लौटता है (अंतर्मुख होता है), तो आत्मा का अनुभव होता है।
शंकराचार्य कहते हैं —
यदि
मन वासनाओं, क्रोध,
ईर्ष्या, मोह से भर जाए तो आत्मा का तेज ढँक जाता
है; पर जब मन निर्मल हो
जाए, तो आत्मा का प्रकाश
अपने आप प्रकट होता है।
योग दर्शन में मन और आत्मा
पतंजलि योगसूत्र में कहा गया है —
योग
में कहा गया है कि आत्मा और मन के बीच पाँच परतें होती हैं —
1.     
अन्नमय
कोश (भौतिक शरीर)
2.     
प्राणमय
कोश (जीवन ऊर्जा)
3.     
मनोमय
कोश (मन)
4.     
विज्ञानमय
कोश (बुद्धि)
5.     
आनंदमय
कोश (आत्मिक आनंद)
जब
साधक ध्यान द्वारा मनोमय कोश से ऊपर उठता है, तब आत्मा के अनुभव का मार्ग खुलता है।
गीता का संदेश: मन का संयम और आत्मा का
अनुभव
भगवद्गीता
में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा —
गीता
में मन को “मित्र” और “शत्रु” दोनों कहा गया है:
·        
संयमित
मन हमारा मित्र है।
·        
असंयमित
मन हमारा शत्रु है।
आत्मा
तो सदैव मुक्त है; केवल
मन की असंयमता उसे बंधन का अनुभव कराती है।
मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से मन-आत्मा का
संबंध
·        
चेतन
(Conscious)
·        
अवचेतन
(Subconscious)
·        
अचेतन
(Unconscious)
मन की अशुद्धियाँ और आत्मा की दूरियाँ
आत्मा का अनुभव: मन की शुद्धि द्वारा
मन
को शुद्ध करने के प्रमुख साधन हैं —
1.     
ध्यान (Meditation)
2.     
प्रार्थना (Prayer)
3.     
भक्ति (Devotion)
4.     
सत्संग (Spiritual company)
5.     
स्वाध्याय (Spiritual study)
6.     
सेवा (Selfless service)
“आत्मा
को खोजने की आवश्यकता नहीं है, केवल
मन को शांत करने की आवश्यकता है; आत्मा
स्वयं प्रकट हो जाएगी।”
विज्ञान और आत्मा
आत्मा की अनुभूति के चरण
1.     
श्रवण – सत्य का ज्ञान सुनना
2.     
मनन – उस पर विचार करना
3.     
निदिध्यासन – ध्यान में उसे आत्मसात करना
4.     
समाधि – मन का पूर्ण लय
5.     
आत्मसाक्षात्कार – आत्मा से एकात्मता
जब
साधक इन चरणों से गुजरता है, तब
मन आत्मा में विलीन हो जाता है और व्यक्ति को परम शांति प्राप्त होती है।
उपनिषदों में मन और आत्मा का संबंध
छांदोग्य उपनिषद् कहता है —
बृहदारण्यक उपनिषद् कहता है —
“अहं
ब्रह्मास्मि।” — मैं ही ब्रह्म हूँ।
यहाँ
“अहं” मन का बोध कराता है और “ब्रह्म” आत्मा का। जब “अहं” का अहंकार मिट जाता है,
तब मन और आत्मा एक हो जाते हैं।
भक्ति मार्ग में मन और आत्मा
“मन
के हारे हार है, मन
के जीते जीत।”
जब
मन आत्मा में समर्पित हो जाता है, तब
भेद मिट जाता है — भक्त और भगवान एक हो जाते हैं।