Saturday, June 21, 2025

मन का आयाम और कर्म का आयाम

  

मन का आयाम और कर्म का आयाम अलग अलग होने पर सफलता और उपलब्धि दूर होता रहता है।

मन और कर्म मे मन से जुड़ने का महत्व बहुत बड़ा आयाम है। दिमाग के हस्तक्षेप से उसमे विकार और निखार दोनो का भाव उत्पन्न होता है।

जिद में व्यक्ति सही और गलत के समझ से परे हो जाता है। अपने मिथ्या को सही करने के लिए किसी की मान मर्दिना का भी ख्याल नही रखता है।

क्या पैसे का महत्व इतना ज्यादा है की आज पैसा बचा लिया तो कल यही पैसा बचाने वाले को बचाता है ।

ये सत्य है की भले पैसा साथ में ऊपर नही जाता है पर नीचे रहते हुए सतत ऊपर उठाता रहता है।

कौन कहता है कि आइना झूट नही बोलता है। ठीक से देखे तो वो प्रतिरूप बनाता है पर दाहिने को बाया और बाए को दाहिना जरूर कर देता है। लिखावट को ऐसे उल्टा करता है जिसे न कोई देखकर सहज लिख सकता है और नही सलीके से पढ़ा जा सकता है। क्या इसे ही कहा जाता है आइना झूट नही बोलता है?

आईने में दिख रहा अपने रूप का प्रतिरूप देखने में सीधा होता है पर वो हरेक वस्तु को उल्टा कर देता है।

प्रेम की परिभाषा निस्वार्थ भाव से समागम ही उपलब्धि तक पहुंचता। लालच मोह में किए कार्य व्यक्ति कभी भी मर्यादा में नही रहने देता। स्वयं पर नियंत्रण अपितु मन पर नियंत्रण ही होता है। ये कभी नहीं भूलना चाहिए की एक दिन इस दुनिया में आए है तो एक दिन इस दुनिया से जाना भी है। एक दूसरे के बीच बना प्रेम भाव से मन को जो संतुष्टि मिलती है वो आत्म के उठान के लिए होता है। मानो विज्ञान से दृष्टि से मनुष्य के सकारात्मक मन सिर्फ दस प्रतिशत है। जीवन को ऊपर उठाना है तो मन के कलेश को दूर करना अनिवार्य है।

लालच मोह गुस्सा तिरस्कार दूसरे को दुख देना अपने और उससे जुड़े व्यक्ति के मन को कही न कही आहत हो होता है। जीवन में कुछ भी करे निस्वार्थ भाव से ही करे। जैसे भगवान श्री कृष्ण राधा जी से निस्वार्थ भाव प्रेम में जुड़े। वृद्धावस्था में राधा के अंत के समय उनके प्रेम में वसूरी को tug diye the। Prem वास्तविक एक मन का त्याग है। जिसमे जिसके आकर्षण में त्याग ही प्राप्त होता है जो मुक्ति का कारण बनता है। जो भी अर्जित करते है आज न कल वो दूसरे को ही जाता है। खुद के लिए तो सकारात्मकता ही बढ़ता है। यही जीवन है यही मुक्ति का मार्ग है।

समय और हालत ऐसा क्यों हो गया है की लोग अपनो में खुशियां खोजने के बजाए पराए में ढूंढते है।

एक बच्चा मां बाप के साए में पलता है। अपने पैर पे खड़ा होने के बाद क्यों अपने बुनियाद से कट कर उसे अपना बना लेता है जो कभी अपना नही हो सकता है। माता पिता परिवार से बढ़कर दुनिया में कुछ नही होना चाहिए। माना की रोजी रोटी के लिए दूसरे शहर में जाने चलन है। पर अपने चल चलन को कभी खराब नही करना चाहिए।

एक तरफ शहर में खुशी और रंगरलिए के नशा में गुम होते सभ्यता संस्कार दिख रहा है। तो दूसरे तरफ गांव में तकलीफ भोगते माता का ख्याल करने वाला कोई नहीं है। ये एक बिजारे से सभ्यता का चलन रहा है जिसमे अभी ध्यान नहीं दिया तो भविष्य में बूढ़े माता पिता की दुर्दशा बाद से बदतर होते जायेंगे। मैं खासकर उन लोगो के लिए लिख रहा हू जिन्होंने पैसे की कमाई में कर्म की कमाई को जैसे ताक पर रख दिया है। जिन्होंने बूढ़े माता पिता को छोड़ ही दिया है।  क्या ये ठीक है?

मिथ्या और आडंबर मन में सवार हो जाता है तो मनुष्य खुद अपने आप से बहुत दूर हो जाता है।

भक्ति में शक्ति होती है। पर भक्ति को सहज करने के लिए सबसे पहले खुद के ओर ही देखना पड़ता है। एक समय था मैं कुंडली के चक्कर में फसकर घमासान घनचक्कर में चला गया। आज कुंडलिनी का अभ्यास धीरे धीरे खुद के करीब लेकर आ रहा है। सत्य को निष्ठा से समझकर समय को अपने अनुकूल करने का प्रयास ही जीवन है। इसके लिए मन के गहराई में छुपे अदृश्य नाकारामक ऊर्जा से संघर्ष करने से ही सकारात्मकता का एहसास उपलब्धि है।

जीवन में भले कुछ प्राप्त हो या न हो पर प्रारब्ध को किसी से कोई छीन नही सकता है। मन के गंदगी को निकलने के लिए सबसे पहले हीन भावना को परखकर उसका त्याग करना ही सकारात्मकता का ज्ञान है। भक्ति को अपने ऊपर सवार करने से अच्छा भक्ति में डूब जाना ही आध्यात्म है। जीवन को समझते हुए भी कर्म रूपी भक्ति कभी मनुष्य को निराशा नही देती है। कर्म से बड़ा कुछ नही है। भक्ति कर्म का करना चाहिए। दूसरो के हृदय को कभी दुखाना नही चाहिए।

 

 मन और कर्म 

कहा जाता है की जीवन मे संतुलन के लिए अच्छे कर्म करना चाहिए।

निस्वार्थ भाव से सेवा ही मन को सरल बनाता है। भोग विलाश कही ना काही मन और आत्मा के दुख का कारण ही है। जीवन का वास्तविक संतुलन अपने कर्म को करने और उससे प्राप्त परिणाम ही जीवन मे सफलता का कारण होता है। चतुराई के चार गुण साम, दान, दंड भेद से परिणाम को अपने पक्ष मे कर तो लेते है पर वो काही ना काही जीवन मे मन और आत्मा के दुख का कारण भविष्य मे बनता है।

कुलसित मन होने के वजह को समझे बगैर किसी को दोष नहीं देना चाहिए।

मन पर किसी का नियंत्रण नहीं होता है। भावनाए मन मे जड़ बना लेती है। जो फैलते जाता है। स्वयं पर नियंत्रण कर के ऐसे बेबुनियादी मन के भावना से बचा जा सकता है। कुंठित मन मे परमात्मा कभी निवश नहीं करते है। परमात्मा के माध्यम से कुलसित मन का उपचार कर सकते है। सबसे अच्छा रास्ता भक्ति भवन ही कुंठित मन को सरलता प्रदान करता है। जिससे कुलसित मन का उपचार होता है।

भगवान श्री कृष्ण की भक्ति मन मे प्रेम की भावना जागता है। सकारात्मक आयाम बढ़ता है।

 

ख़ुद के मन को समझ के फेर में बेखुदी में ही फसते हैं। मन जैसा भी है उसे वैसे ही रहने दे। मन के आयाम को समझने का मतलब कही न कही फसाना। जो जा चुका है लौट कर नहीं आएगा। पीछे की ओर देखना वर्तमान को खराब करना। भविष्य का तो अता पाता नही। सोचने का मतलब मस्तिष्क के दोहरे पहलू में फसाना । जो की एक सकारात्मक और और दूसरा नकारात्मक है। सोच विचारो के उलझन में ही फसा देता है।

कर्म ही दिलासा देता है। सत्कर्म ही शांति हैं। बाकी जो बचा सब ग्लानि देने वाला है। भविष्य की चिंता में फसाना बीमार पड़ने के बराबर है। वर्तमान को सही रखे तो वही आने वाले पल में भविष्य होने वाला है। चिंताओं में घिरना परिणाम को कम करने के बराबर है। सोच का सहारा लेना परिणाम को दो भाग में करना। कर्म एक मुष्ठ सकारामक है। परिणाम चाहे जो भी हो उसने हर्ष और उल्लास है। कभी भी मन को कुलशित नही बनने दे।

 

 

 

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