Monday, November 3, 2025

सोम प्रदोष व्रत एक शोधात्मक, भक्तिपूर्ण एवं वैज्ञानिक दृष्टि से विशुद्ध अध्ययन

सोम प्रदोष व्रत एक शोधात्मक, भक्तिपूर्ण एवं वैज्ञानिक दृष्टि से विशुद्ध अध्ययन 




प्रस्तावना – प्रदोष का दिव्य रहस्य


भारतीय सनातन संस्कृति में समय केवल भौतिक मापन का साधन नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक चक्र है। प्रत्येक क्षण में देवत्व विद्यमान है। इसी समय-चक्र में एक विशेष कालखंड है  “प्रदोष काल”, जो संध्या के समय सायंकाल में सूर्यास्त के बाद और रात्रि के प्रारंभ के बीच आता है।

यही वह काल है जब त्रिदेव  ब्रह्मा, विष्णु और महेश  साक्षात सक्रिय माने जाते हैं, और इसमें किया गया तप, पूजन, दान, ध्यान अथवा व्रत अनंत गुणा फलदायी होता है।

प्रदोष व्रत प्रत्येक पक्ष में दो बार आता है  शुक्ल पक्ष का प्रदोष और कृष्ण पक्ष का प्रदोष। जब यह प्रदोष सोमवार के दिन आता है, तो उसे कहते हैं “सोम प्रदोष व्रत”  जो भगवान शंकर को विशेष प्रिय है।

यह व्रत न केवल शिवभक्तों के लिए कल्याणकारी है, बल्कि समस्त जीवों के लिए मोक्षदायी भी कहा गया है।



सोम प्रदोष व्रत का पौराणिक महत्व


1. शिवमहापुराण और स्कंदपुराण में वर्णन

शिवमहापुराण में कहा गया है 

“प्रदोषे पूजितो शंभुः सर्वकामफलप्रदः।”

अर्थात् — प्रदोष काल में पूजित भगवान शंभु समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं।

स्कंदपुराण में उल्लेख है कि जब चंद्रदेव को शाप मिला था कि उनका तेज घट जाएगा, तब उन्होंने भगवान शंकर की आराधना प्रदोष काल में की। प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें आशीर्वाद दिया  “तुम्हारा क्षय केवल अमावस्या तक रहेगा, फिर तुम पुनः पूर्ण बनोगे।”

इसी से चंद्रमा का क्षय-वृद्धि चक्र प्रारंभ हुआ और सोमवार (सोमवार = सोम + वार) भगवान शिव को प्रिय बन गया।


2. समुद्र मंथन का प्रसंग

समुद्र मंथन के समय जब कालकूट विष निकला, तब समस्त देवता भयभीत हो गए।

सभी ने भगवान शंकर से प्रार्थना की।

भगवान ने नीलकंठ रूप धारण कर उस विष को अपने कंठ में धारण किया।

यह भी सायंकाल का समय था अर्थात प्रदोष काल।

इस समय उनकी आराधना करने से मनुष्य विषरूपी पापों और दुखों से मुक्त होता है।



सोम प्रदोष व्रत की कथा (कथानक भाग)


प्राचीन काल में चंद्रवंशी राजा चंद्रसेन अवंती नगरी (उज्जैन) में शासन करते थे।

वे भगवान शंकर के परम भक्त थे।

वे प्रतिदिन प्रदोष काल में शिवलिंग का पूजन करते, रुद्राभिषेक करते और "ॐ नमः शिवाय" जपते रहते।

एक दिन कुछ ग्रामीण बालक उनके महल में खेलते हुए आए। उन्होंने राजा को ध्यानमग्न देखा।

एक बालक ने उत्सुकतावश राजा की मुद्रा की नकल की और मिट्टी से शिवलिंग बनाकर पूजा करने लगा।

उस बालक का नाम था शिकर।

भगवान शंकर उसकी निष्ठा से अत्यंत प्रसन्न हुए।

उसी रात्रि राजा के राज्य पर शत्रुओं ने आक्रमण किया, परंतु बालक शिकर की पूजा से उत्पन्न शिवकृपा ने सम्पूर्ण राज्य की रक्षा कर दी।

भगवान शिव प्रकट हुए और बोले 

“हे बालक! तुमने प्रदोष काल में मेरी उपासना की है। जो भी इस समय मेरी आराधना करेगा, वह संकट से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करेगा।”

इसी घटना से प्रदोष व्रत की परंपरा आरंभ हुई।


सोम प्रदोष व्रत की विधि

1. व्रत प्रारंभ का संकल्प

प्रदोष व्रत रखने वाले भक्त को प्रातः स्नान कर भगवान शिव का स्मरण करना चाहिए 

“मम सर्वपापक्षयपूर्वकं शिवप्रियं सोमप्रदोषव्रतं करिष्ये।”


2. उपवास व नियम

व्रतधारी को दिनभर फलाहार या निर्जल उपवास रखना चाहिए।

मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना चाहिए।

सायंकाल सूर्यास्त से लगभग 1.5 घंटे के भीतर, प्रदोष काल में पूजा करनी चाहिए।


3. पूजन विधि

1. उत्तराभिमुख होकर बैठें।

2. शिवलिंग पर गंगाजल, दूध, दही, शहद, घृत, और जल से षोडशोपचार पूजन करें।

3. बेलपत्र, धतूरा, आक, चंदन, अक्षत और पुष्प चढ़ाएँ।

4. “ॐ नमः शिवाय” का 108 बार जप करें।

5. दीपक जलाकर शिवलिंग के चारों ओर तीन बार परिक्रमा करें।

6. पार्वती माता, नंदी, कार्तिकेय, गणेश और चंद्रदेव की पूजा करें।


4. रात्रि जागरण

रात्रि में “शिवचरित्र” और “शिवमहिम्न स्तोत्र” का पाठ करें।

रात्रि में जागरण करने से पाप क्षय होता है और शुभ फल प्राप्त होता है।



सोम प्रदोष व्रत का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक पक्ष


भारतीय व्रत-उपवास केवल आस्था नहीं, बल्कि शरीर और मन की शुद्धि के वैज्ञानिक उपाय भी हैं।

1. सोमवार और चंद्र ऊर्जा:

सोम (चंद्र) हमारे मन का प्रतीक है। सोमवार को उपवास करने से मन स्थिर होता है। प्रदोष काल में ध्यान करने से पीनियल ग्रंथि (pineal gland) सक्रिय होती है, जो मानसिक शांति और अंतर्ज्ञान को बढ़ाती है।

2. संध्या काल का समय:

सूर्यास्त और रात्रि के संधिकाल में सौर और चंद्र ऊर्जा संतुलित होती है। इस समय ध्यान करने से बीटा और अल्फा मस्तिष्क तरंगों का संतुलन बनता है।

3. उपवास के लाभ:

फलाहार या निर्जल उपवास से डिटॉक्सिफिकेशन होता है, जिससे शरीर से विषैले तत्व निकलते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टि से यह सेल रिपेयर और मेटाबॉलिज़्म सुधार में सहायक है।

4. ‘ॐ नमः शिवाय’ जप का प्रभाव:

यह पंचाक्षरी मंत्र शरीर के पंचतत्वों को संतुलित करता है।

“नमः” का उच्चारण हृदय गति और रक्तचाप को संतुलित करता है।


सोम प्रदोष व्रत के फल और लाभ


शास्त्रों में कहा गया है 

“प्रदोषे तु शिवं ध्यायेत् सर्वरोगनिवारणम्।”

(पद्मपुराण)

मुख्य लाभ:

1. पापों से मुक्ति: जीवन के ज्ञात-अज्ञात पाप नष्ट होते हैं।

2. आरोग्य और दीर्घायु: रोग, क्लेश और मानसिक तनाव का क्षय होता है।

3. धन-वैभव में वृद्धि: व्यवसाय में सफलता और परिवार में सुख-शांति आती है।

4. वैवाहिक सुख: कुंवारी कन्याएँ यदि सोम प्रदोष का व्रत करें, तो उन्हें योग्य वर प्राप्त होता है।

5. संतान प्राप्ति: निःसंतान दंपत्ति को शिवकृपा से संतान प्राप्ति होती है।

6. मोक्ष प्राप्ति: अन्ततः यह व्रत जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्रदान करता है।


सोम प्रदोष व्रत और शिव–पार्वती संवाद


पौराणिक ग्रंथों में एक प्रसंग आता है जब देवी पार्वती ने भगवान शिव से पूछा 

“हे प्रभो! ऐसा कौन-सा व्रत है जिससे शीघ्र ही आपकी कृपा प्राप्त हो?”

भगवान शिव मुस्कुराए और बोले 

“देवि! जो भी प्रदोष काल में मेरा ध्यान करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।

विशेषकर सोमवार के प्रदोष में यदि भक्त उपवास रखे, तो वह न केवल सांसारिक बंधनों से मुक्त होता है, बल्कि मुझे प्राप्त करता है।”

पार्वती जी ने तब यह व्रत स्वयं किया और इसे स्त्रियों में प्रचारित किया।

तब से यह व्रत “सोम प्रदोष व्रत” के नाम से प्रसिद्ध हुआ।


सोम प्रदोष व्रत का ज्योतिषीय आधार

सोमवार का स्वामी चंद्रदेव हैं, जो मन और भावनाओं के प्रतीक हैं।

प्रदोष का समय शिवतत्त्व से जुड़ा हुआ है, जो शून्यता और चेतना का संगम है।

जब चंद्र और शिव ऊर्जा एक साथ सक्रिय होती हैं, तब मनुष्य की चेतना अत्यंत शुद्ध होती है।

इसलिए कहा गया है 

“सोम प्रदोषे शिवं ध्यायेत्, सर्वकर्मसिद्धये।”



विविध प्रदोषों का वर्गीकरण


प्रदोष व्रत बारह प्रकार का माना गया है 

1. सोम प्रदोष – धन, शांति और आरोग्य के लिए।

2. मंगल प्रदोष – ऋण मुक्ति के लिए।

3. बुध प्रदोष – बुद्धि, विद्या और व्यापार वृद्धि के लिए।

4. गुरु प्रदोष – ज्ञान और गुरुकृपा के लिए।

5. शुक्र प्रदोष – दाम्पत्य सुख के लिए।

6. शनिवार प्रदोष (शनि प्रदोष) – पापक्षय और शत्रु नाश के लिए।

7. रवि प्रदोष – आत्मशक्ति और तेज वृद्धि के लिए।

8. अमावस्या प्रदोष – पितृ शांति के लिए।

9. पूर्णिमा प्रदोष – चित्तशुद्धि के लिए।

10. महाशिवरात्रि प्रदोष – सर्वश्रेष्ठ प्रदोष, मोक्ष हेतु।

11. सौम्य प्रदोष – मानसिक शांति के लिए।

12. दैविक प्रदोष – ग्रहदोष निवारण हेतु।


निष्कर्ष और उपसंहार

सोम प्रदोष व्रत केवल एक धार्मिक कृति नहीं, बल्कि एक जीवनशैली है 

जहाँ शरीर, मन और आत्मा तीनों का संतुलन होता है।

यह व्रत हमें सिखाता है कि जब संसार का विष (कठिनाइयाँ, चिंताएँ, पाप) जीवन में घुल जाए,

तो उसे शिव की शरण में समर्पित कर देना ही मुक्ति का मार्ग है।

जो भी भक्त श्रद्धा से सोम प्रदोष व्रत करता है 

वह भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों स्तरों पर समृद्धि पाता है।

शिवपुराण में कहा गया है 

“यः कुर्याद् सोमप्रदोषं श्रद्धया यः सनातनम्।

स गच्छेत् शिवलोकं च न च पुनर्जन्म विन्दति॥”



🔱 समापन प्रार्थना

“ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥”


हर हर महादेव!

सोम प्रदोष व्रत करने वाला प्रत्येक भक्त शिवकृपा का पात्र बने यही मंगलकामना है।

Sunday, November 2, 2025

तुलसी विवाह (Tulsi Vivah) धार्मिक, पौराणिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक तथा सामाजिक सभी पहलुओं को समाहित किया गया है।

 तुलसी विवाह (Tulsi Vivah) धार्मिक, पौराणिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक तथा सामाजिक सभी पहलुओं को समाहित किया गया है।


तुलसी विवाह : एक संपूर्ण विवेचन


प्रस्तावना


भारतीय संस्कृति में धर्म, भक्ति और परंपराओं का अद्भुत संगम है। यहाँ हर पर्व, हर उत्सव किसी न किसी आध्यात्मिक अर्थ से जुड़ा हुआ है। इन्हीं पवित्र पर्वों में से एक है तुलसी विवाह, जो कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी या द्वादशी तिथि को मनाया जाता है। इसे देवोत्थान एकादशी के बाद का सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान माना गया है।

तुलसी विवाह न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारतीय गृहस्थ जीवन और सामाजिक परंपराओं का प्रतीक भी है। यह वह अवसर है जब भगवान विष्णु देव-निद्रा से जागते हैं और माता तुलसी के साथ उनका शुभ विवाह संपन्न होता है। इस विवाह का महत्व इतना अधिक है कि इसे देवताओं का विवाह महोत्सव कहा जाता है।


तुलसी का आध्यात्मिक महत्व

भारतीय जीवन में तुलसी का स्थान अत्यंत उच्च है। उसे “देवी” कहा गया है, क्योंकि तुलसी के पौधे में देवी तुलसी (वृंदा) का निवास माना गया है।

शास्त्रों में कहा गया है 


“तुलसीदलेन्येन पूजयेच्छकृष्णं तत्क्षणात् प्रीयते।”

(विष्णु धर्मसूत्र)

अर्थात् – जो व्यक्ति भगवान विष्णु को तुलसीदल से पूजता है, भगवान तुरंत प्रसन्न हो जाते हैं।

तुलसी के पौधे को हर हिंदू घर में विशेष स्थान प्राप्त है। इसे घर के आँगन, तुलसी चौरा या गमले में लगाकर प्रतिदिन पूजने की परंपरा है। यह न केवल धार्मिकता का प्रतीक है, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत लाभकारी पौधा है।


तुलसी देवी का पौराणिक जन्म

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार तुलसी देवी का जन्म धर्मध्वज नामक राजा के घर हुआ था। उनका नाम वृंदा रखा गया। वे अत्यंत रूपवती, तपस्विनी और भगवान विष्णु की महान भक्त थीं। उनका विवाह दैत्यराज जालंधर से हुआ, जो अत्यंत बलशाली और वीर था।

जालंधर भगवान शिव के तेज से उत्पन्न हुआ था। वृंदा की पतिव्रता शक्ति के कारण ही जालंधर को कोई देवता पराजित नहीं कर पा रहा था। अंततः विष्णु ने जालंधर का वध करने के लिए एक युक्ति रची।


जालंधर-वृंदा की कथा

देवताओं ने भगवान विष्णु से विनती की कि जालंधर का अंत करें, क्योंकि वह अधर्म का मार्ग अपना चुका था। विष्णु ने जालंधर के रूप में वृंदा के सामने जाकर उसके पतिव्रत धर्म को भंग किया।

जब वृंदा को इस छल का पता चला, तो वह क्रोधित होकर विष्णु को शाप देती है 

“हे विष्णु! तुमने मेरे पतिव्रत धर्म का अपमान किया है। अब तुम शिला बनोगे।”

इस शाप के प्रभाव से भगवान विष्णु शालिग्राम शिला के रूप में परिवर्तित हो गए। वृंदा ने फिर स्वयं को अग्नि में समर्पित कर दिया।

भगवान विष्णु ने वृंदा को आशीर्वाद दिया कि 

“हे वृंदा! तुम पृथ्वी पर तुलसी के रूप में उत्पन्न होगी, और जब-जब मेरा विवाह होगा, पहले तुम्हारे साथ विवाह किया जाएगा।”

इस प्रकार से तुलसी विवाह की परंपरा प्रारंभ हुई।


तुलसी विवाह की तिथि और विधि

तुलसी विवाह कार्तिक मास की शुक्ल एकादशी (देवोत्थान एकादशी) से प्रारंभ होकर द्वादशी या पूजन की अनुकूल तिथि तक किया जाता है। विभिन्न क्षेत्रों में यह तिथि थोड़ी भिन्न हो सकती है 

उत्तर भारत में — कार्तिक शुक्ल द्वादशी

महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा में — एकादशी के दिन

दक्षिण भारत में — द्वादशी या त्रयोदशी

इस दिन तुलसी विवाह का आयोजन प्रातः या सायंकाल शुभ मुहूर्त में किया जाता है।


तुलसी विवाह की तैयारी

1. तुलसी चौरा सजाना

इस दिन तुलसी के पौधे को साफ कर, स्नान कराकर, गंगा जल से अभिषेक किया जाता है। फिर उसे रंग-बिरंगे कपड़ों, फूलों, गन्ने, आमपत्रों और दीपों से सजाया जाता है।

2. भगवान विष्णु (शालिग्राम) की स्थापना

तुलसी के सामने शालिग्राम जी या भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित की जाती है।

3. मंडप बनाना

दोनों ओर तुलसी और विष्णु के लिए एक छोटा मंडप (विवाह मंडप) बनाया जाता है, जिसे केले के पत्तों, नारियल, आमपत्रों और पुष्पों से सजाया जाता है।

4. वैवाहिक सामग्री

कुमकुम, चावल, दीपक, नारियल, मिठाई, हल्दी, पान, सुपारी, वस्त्र आदि सामग्री तैयार की जाती है।


तुलसी विवाह की संपूर्ण पूजा विधि

1. मंगलाचरण और संकल्प:

पूजा की शुरुआत गणेश वंदना से होती है। फिर व्रती संकल्प करता है कि वह भगवान विष्णु और तुलसी माता का विवाह करेगा।

2. अभिषेक:

तुलसी और शालिग्राम जी को पंचामृत और गंगाजल से स्नान कराया जाता है।

3. श्रृंगार:

तुलसी को लाल साड़ी, चूड़ी, बिंदी आदि से सजाया जाता है, जबकि शालिग्राम जी को पीताम्बर पहनाया जाता है।

4. विवाह विधि:

ब्राह्मण या गृहस्थ पुरोहित विवाह मंत्रों का उच्चारण करते हैं —

वरमाला पहनाना

कन्यादान

सप्तपदी

मंगलफेरे


5. आशीर्वाद और आरती:

विवाह के बाद शालिग्राम और तुलसी की आरती की जाती है और प्रसाद वितरित किया जाता है।


तुलसी विवाह का धार्मिक महत्व

1. देवताओं का जागरण काल:

देवोत्थान एकादशी को देवता चार माह की निद्रा से जागते हैं, अतः इसी दिन से सभी मांगलिक कार्य प्रारंभ किए जाते हैं।

2. विवाह पर्व की शुरुआत:

तुलसी विवाह के बाद हिंदू समाज में विवाहों का शुभ मुहूर्त प्रारंभ होता है।

3. आध्यात्मिक अर्थ:

तुलसी और विष्णु का विवाह भक्ति और भोग, आत्मा और परमात्मा, प्रकृति और पुरुष के मिलन का प्रतीक है।

4. मोक्ष का मार्ग:

तुलसी विवाह में सम्मिलित होने या उसका आयोजन करने से मनुष्य को अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है।


पौराणिक संदर्भ

तुलसी विवाह का वर्णन पद्म पुराण, स्कंद पुराण, विष्णु पुराण, गरुड़ पुराण आदि में मिलता है। इन ग्रंथों में तुलसी की महिमा और विष्णु के साथ उसके दिव्य मिलन का विस्तार से उल्लेख है।


पद्म पुराण में कहा गया है 

“तुलसी दलमात्रेण जलस्य च तुला भवेत्।

तुलसीस्मरणेनापि पापनं नाशमाप्नुयात्॥”

अर्थ — केवल तुलसीदल अर्पण करने या उसका स्मरण करने से ही पापों का नाश हो जाता है।


तुलसी विवाह के सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू

तुलसी विवाह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता का प्रतीक भी है। गाँवों और शहरों में इसे सामूहिक रूप से मनाया जाता है। स्त्रियाँ गीत गाती हैं, विवाह जैसा उत्सव मनाती हैं।

कुछ स्थानों पर तुलसी विवाह को कन्या विवाह का रूपक मानकर गरीब परिवारों की कन्याओं का विवाह भी इसी दिन कराया जाता है। इससे समाज में दान, सहयोग और सहानुभूति की भावना उत्पन्न होती है।


लोक गीत और पारंपरिक अनुष्ठान

तुलसी विवाह के समय कई पारंपरिक गीत गाए जाते हैं, जैसे 

“श्री तुलसी माता विवाह रचायो, विष्णु भगवान सजे वरराजा...”

महिलाएँ ‘मेहंदी’, ‘हल्दी’, ‘बारात स्वागत’ और ‘फेरे’ जैसे विवाह संस्कारों को उत्सव रूप में करती हैं।


वैज्ञानिक दृष्टि से तुलसी का महत्व

आधुनिक विज्ञान भी तुलसी के गुणों को स्वीकार करता है। तुलसी में यूजेनॉल, लिनोलिक एसिड, कैम्फर आदि औषधीय तत्व पाए जाते हैं जो —

श्वसन तंत्र को शुद्ध करते हैं

रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाते हैं

मच्छरों और कीटों को दूर रखते हैं

मानसिक शांति प्रदान करते हैं

इसलिए तुलसी को ‘एलिक्सिर ऑफ लाइफ’ यानी जीवन अमृत कहा गया है।


तुलसी विवाह और पर्यावरण संरक्षण

भारतीय संस्कृति में वृक्षों को देवता माना गया है। तुलसी विवाह इस भावना को और सशक्त करता है, क्योंकि इसमें पौधे को जीवंत रूप में पूजने की परंपरा है। इससे पर्यावरण के प्रति श्रद्धा और संवेदना का भाव उत्पन्न होता है।


तुलसी विवाह से जुड़े धार्मिक व्रत

कई महिलाएँ इस दिन तुलसी विवाह व्रत रखती हैं। व्रतधारी स्त्रियाँ प्रातः स्नान कर व्रत का संकल्प लेती हैं, पूरे दिन उपवास रखती हैं और सायंकाल विवाह अनुष्ठान के बाद व्रत खोलती हैं।


तुलसी विवाह के आस पास के पर्व

तुलसी विवाह के बाद कार्तिक पूर्णिमा तक कई धार्मिक पर्व आते हैं 

गोवर्धन पूजा

भाई दूज

छठ पूजा

कार्तिक पूर्णिमा स्नान

इन सभी का संबंध तुलसी पूजा और कार्तिक मास की पवित्रता से है।


तुलसी विवाह का दार्शनिक अर्थ

तुलसी विवाह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक है।

तुलसी प्रकृति, भक्ति और श्रद्धा का प्रतीक है।

विष्णु पुरुष, सृष्टिकर्ता और शक्ति के धारक हैं।

उनका मिलन दर्शाता है कि जब भक्ति (तुलसी) भगवान (विष्णु) से मिलती है, तब मोक्ष की प्राप्ति होती है।


तुलसी विवाह और गृहस्थ धर्म

तुलसी विवाह गृहस्थ जीवन के आदर्श का भी प्रतीक है।

यह बताता है कि विवाह केवल शारीरिक नहीं, बल्कि आत्मिक संबंध है।

तुलसी और विष्णु का विवाह भक्ति, निष्ठा और समर्पण का आदर्श उदाहरण है।


तुलसी विवाह का क्षेत्रीय स्वरूप

भारत के विभिन्न राज्यों में तुलसी विवाह को अलग-अलग रूपों में मनाया जाता है 

महाराष्ट्र: इसे देव दिवाळी के साथ मनाया जाता है। तुलसी को नववधू की तरह सजाया जाता है।

गुजरात: यहाँ इसे “तुलसी विवाह उत्सव” कहा जाता है और सामूहिक पूजन होता है।

उत्तर प्रदेश / बिहार: तुलसी चौरा को मिट्टी से बनाया जाता है और गीतों के साथ विवाह संपन्न होता है।

दक्षिण भारत: तुलसी विवाह के दिन विशेष रूप से दीपमालाएँ सजाई जाती हैं।


तुलसी विवाह के अनुष्ठान में निषेध

1. विवाह के दिन घर में झगड़ा या शोक नहीं होना चाहिए।

2. तुलसी के पौधे को बिना अनुमति या अकारण नहीं तोड़ना चाहिए।

3. रात्रि में तुलसी से पत्ते नहीं तोड़ने चाहिए।


तुलसी विवाह के लाभ

1. घर में सुख-समृद्धि बढ़ती है।

2. वैवाहिक जीवन में प्रेम और सामंजस्य बना रहता है।

3. पितरों की तृप्ति होती है।

4. संतान प्राप्ति और रोग निवारण का आशीर्वाद मिलता है।


तुलसी विवाह का सांस्कृतिक संदेश

तुलसी विवाह हमें सिखाता है कि :

प्रकृति की पूजा करें।

दांपत्य जीवन में पवित्रता रखें।

भक्ति और प्रेम से जीवन को पूर्ण बनाएं।


तुलसी विवाह और आधुनिक समाज

आधुनिक युग में भले ही तकनीकी और व्यावहारिक सोच बढ़ी हो, किंतु तुलसी विवाह जैसे पर्व हमें हमारी जड़ों से जोड़े रखते हैं। यह हमें स्मरण कराता है कि 

“जहाँ तुलसी, वहाँ हरि का वास है।”

आज भी भारत में करोड़ों लोग इस पर्व को परिवार सहित उल्लासपूर्वक मनाते हैं।


निष्कर्ष

तुलसी विवाह भारतीय संस्कृति की उस अद्भुत परंपरा का प्रतीक है जहाँ धर्म, प्रकृति, समाज और अध्यात्म का संगम होता है।

यह न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह जीवन की पवित्रता, प्रेम, और नैतिकता का उत्सव है।


तुलसी विवाह हमें सिखाता है कि 

“सच्चा विवाह वही है जिसमें समर्पण, श्रद्धा और भक्ति का भाव हो।”

तुलसी माता और भगवान विष्णु के इस दिव्य मिलन से समस्त मानवता को यह संदेश मिलता है कि जब भक्ति और शक्ति एक साथ हों, तभी सृष्टि में संतुलन संभव है।


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